Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १२५, सू० १८० ]
तृतीयो विवेकः
[ ३२७
श्रवणेषु रामस्य मुहुर्मुहुः करुणाधिक्यम् । अंगभूतो हि रसो न धाराधिरोहमईति, अन्यथाऽङ्गिन वीररसं तिरोदधीत ।
केचिदत्र हयग्रीवधे हयग्रीववर्णनमुदाहरन्ति । स पुनर्वृ त्तदोषो वृत्तनायकस्याल्पवर्णनात् । तत्र हि वीरो रसः स विशेषतो बध्यस्य शौर्य-विभूत्यतिशय वर्णनेन भूष्यत इति ।
(ग) 'अपोष:' इति धारानधिरोहणं अपोषो दोषः । यथा"बीभत्सा विषया, जुगुप्सिततमः कायो, वयो गत्वरं, प्रायो बन्धुभिरध्वनीव पथिकैर्योगो वियोगावहः । हातव्योऽयमसम्भवाय विरसः संसार इत्यादिकं, सर्वस्यापि हि वाचि, चेतसि पुनः कस्यापि पुण्यात्मनः || ”
अत्र कविना 'वाचि' इत्युपनिबध्नता विषयबीभत्सत्वादीनां शान्तजननं प्रति मन्दत्वमुक्तम् । अन्यथा सर्वस्य चेतस्यपि स्यात् । अपोषश्चांगिनो, अंगांगिभाववर्जितस्य वा मुक्तकोपात्तस्य । अंगभूतस्यापोषः पुनर दोष एवेति ।
(घ) ' अत्युक्तिः' इति धाराधिरूढस्यापि रसस्य नैरन्तर्येण पुनः पुनः उद्दीप्ति - पर रामचन्द्र के बार-बार करुरण [ विलापावि ] का अधिकय [ इस प्रोग्रय नामक रसदोषका उबाहररण है] । भङ्गभूत [ अप्रधान] रसका प्रत्यन्त विस्तार नहीं होना चाहिए। अन्यथा वह प्रधान भूत वीररसको दबा देगा ।
कुछ लोग हयग्रीव-वध में हयग्रीवके वर्णनको इसका उदाहरण बतलाते हैं । किन्तु [हमारी सम्मति में तो ] वह वृत्त दोष है [ रसदोष नहीं है] । क्योंकि उसमें वृत्त [अर्थात् कथाभाग ] के नायकका वर्णन कम [ और प्रतिनायक हयग्रीवका वन अधिक हो गया है । अतः वह वृत्त दोष है रसदोषमें उसका उदाहरण नहीं देना चाहिए] । उसमें वीररस [मुख्य रस] है मौर ass [यप्रीव] के शौयं तथा विभूति श्रादिके प्रतिशय वनसे वह शोभित [परिपुष्ट ] ही होता है [प्रतः उसमें रसदोष नहीं माना जा सकता है। वह वृत्त दोष अर्थात् कथाभागका दोष है] (ग) प्रपोष अर्थात् [ मुख्य रसका] प्रवाहपर न आना [प्रपोष नामक रसदोष होता है] । जैसे
विषय प्रत्यन्त बीभत्स है, यह शरीर [मल-मूत्र प्रादिकी खान होनेसे ] श्रत्यन्त घृणित है, प्रायु विनष्ट होने वाली है, और बन्धु बान्धवोंके साथ मिलन रास्तेमें मिलने वाले पथिकों समान अन्तमें वियोग में पर्यवसित होनेवाला ही होता है [असम्भवाय अर्थात् ] पुर्नजन्मसे बचने के लिए [ मुक्तिकी प्राप्तिकेलिए] इस नीरस संसारको त्याग देना चाहिए इत्यादि [ वैराग्यपूर्ण बातें] सब लोगोंके केवल वचनों में रहती है, मनमें तो किसी पुण्यात्माके हो पाई जाती है । इसमें 'वाचि' [वारणीमें ही होती है मनमें नहीं] ऐसा कहकर कविने विषयोंकी बीभत्सता आदिको शांतरसको उत्पत्तिके प्रति मन्दता सूचित की है। अन्यथा [ यदि इनमें प्रबलता होती तो ] सबके मनमें भी [ उनकी स्थिति ] होती [ इसलिए यहाँ रसका प्रपरिपोष रूप रसदोष है ] । यह अपरिपोष ( १ ) प्रधान रसका अथवा (२) मुक्तकोंमें स्वतन्त्र रूपसे वणितका होता है । अंगभूत [ प्रधान रस] का अपरिपोष, दोष नहीं होता है ।
(घ) 'प्रत्युक्ति' अर्थात् रसके प्रवाहपर पहुंच जानेपर भी उसका बार-बार उही
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