Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 434
________________ का० १२२, सू० १७६ ] तृतीयो विवेकः न्तमीप्सितम् । तस्य सिद्धिः प्राप्तिनिष्पत्ति। एवमादिभ्यो विभावेभ्यो विस्मयस्थायी अदभुतो रसो भवति । हर्षेण स्वानुभावाः सूच्यन्ते । एभिर्नयनविस्तार-गानोल्लुकसन अनिमिषप्रेक्षण-चेलोंगुलिभ्रमण-गद्गद्-वचन-वेपथु-स्वेदादेरनुभावस्य ग्रहः । व्यभिचारिणश्चास्य आवेग-जडता-सम्धन-स्तम्भ-अश्रा-गद्गद्-रोमाञ्चादय इति । [१६] १२ अथ शान्तः -- [सूत्र १७६]-- संसारभय-वैराग्य-तत्त्व-शास्त्र-विमर्शनः । शान्तोऽभिनयनं तस्य क्षमा-ध्यानोपकारतः ॥[२०] १२२।। देव-मनुष्य-नारक-तिर्यग्रूपेण बहुधा एरिभ्रमणं संसारः, तस्माद् भयम् । वैराग्य विषयवैमुख्यम् । तत्त्वस्य जीवाजीव-पुण्य-पापादिरूपस्य, शास्त्रस्य मोक्षहेतुप्रतिपाद. कस्य विमर्शन पुनः पुनश्चेतसि न्यसनम् । एवमादिभिर्विभावैः, काम-क्रोध-लोभ-मान: मायाद्यनुपरक्त परोन्मुखताविजिताक्लिष्टचेतोपशमस्थायी शान्तो रसो भवति । तर्जन-वध-बन्धादिसहनं क्षमा। ध्यानं जीवाजीबादिहन्त्वभावनम् । अनेन स्वानुभावा स्पर्श, नृत्त, गीतादि, उसका दर्शन अर्थात् साक्षात्कार करना। इससे स्वयं कहना या सुनना भी गृहीत होता है। अभीष्ट पदसे प्रत्यन्त चाहने योग्य प्रत्यन्त प्रिय पर्थ गृहीत होता है । उसको सिहि अर्थात प्राप्ति अथवा उत्पत्ति । इस प्रकारके विभावोंसे विस्मय रूप स्थायिभाववाला अद्भुत रस उत्पन्न होता है। [कारिकामें प्राए हुए] 'हर्ष' पवसे अपने अनुभाव सूचित होते हैं, इनसे नेनों का विस्तार, अंगोंको तोड़ना-मोड़ना टकटको लगाकर देखना, कपड़ा अथवा अंगुलियोंका घुमाना, गद्गद् वचन, कम्पन और स्वेदावि अनुभावोंका प्रहण होता है। पावेग, जड़ता, स्तम्भ, प्रधु, गद्गद् और रोमाञ्चादि इसके व्यभिचारिभाव होते हैं ।। [१६] १२१ ॥ अक्ष शांत [रसका निरूपण करते ह] सूत्र १७६]-जन्म-मरण [रूप संसार से भय, वैराग्य, [प्रात्मा-परमात्मा धादि] तत्त्वों और शास्त्रादिके चिन्तनसे उत्पन्न होने वाला शांतरस होता है। और क्षमा, ध्यान तथा उपकार के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है। [२०] १२२ ॥ . देव मनुष्य नारक या तिर्यक् [पशु-पक्षी] आदि रूपमें घूमना [अर्थात बार-बार जन्म धारण करना] 'संसार' कहलाता है। उससे भय [शांतरसका कारण होता है ।] विषयोंसे विमुखता 'वाय' कहलाता है । तत्त्व अर्थात् नीव और अजीव अथवा पाप और पुण्य यावि अप, सा मोक्षके उपायोंके प्रतिपादक शास्त्रका विचार करना, चित में बार-बार लाना। इस प्रकार के भावोंसे काम, क्रोध, मोह, अभिमान, माया हादिके.सम्बन्धसे रहित विषयोन्मुखतासे रहित अगलष्ट चित्तवृत्ति रूप शमस्थायिभाव वाला शांतरस उत्पन्न होता है। - फटकार लजेन) अध, बन्धन प्रादिको सह लेना 'क्षमा' कहलाती है। जीव-प्रजी धादि तत्वोंका विचार करला 'ध्यान' कहलाता है : इससे अपने निश्चनष्टिता भादि अनुभाव प्रचित होते हैं । 'उपकार' पटसे मंत्री, मुदिता मोद] काणा, और उपेक्षा माध्यस्थ्य] प्रादि अनुभाव सूषित होते हैं। निद, भक्ति, मृति, इति प्रादि इसके व्यभिचारिभाव है। चिनजय प्रादि से किन्हीं प्राचार्यों ने इस [शांतरस] को नहीं माना है। उनके मतमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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