Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 432
________________ का० ११६, सू० १७३ 1 तृतीयो विवेकः [ ३१५ आधु पाधिभेदात् । धैर्य महत्यपि परसैन्ये विपदि वा अकातर्यम। अनेन सैन्योत्तेजन-पराक्षेपादेरनुभावस्य ग्रहः । दानेन प्रमोद-माध्यस्थ्य-शान्तचेष्टादेः। व्यभिचारिणश्चास्य धृति-मति-गर्व-आवेग-श्रीप्रथ-अमर्ष-स्मृति-रोमान्चादयः। वीररसे च युद्धा- . दिभावेऽपि न रौद्रत्वम्, उत्साह-न्यायप्रधानत्वात् । रौद्रे तु मोह-अहङ्कार-अपन्यायप्राधान्यमित्यनयो न साङ्कर्यमिति ॥ [१६] ११८ ।। अथ भयानकः - [सूत्र १७३]-पताका-कोति-रौद्रप्राजि-शून्य-तस्कर-दोषजः । भयानकोऽभिनेतव्यः स्तम्भ-रोमाञ्च-कम्पनैः ।। [१७].११६॥ रौद्राः स्वराकारवैकृत्येन भीषणाः पिशाचोलुकादयः। आजिःशस्त्राघातः । अयं चोपलक्षणं वध-बन्धयोः। शून्यं निर्जनं गेहारण्यादि। दोषो गुरुनृपादेरपराधः । एभ्यो दृष्ट-श्रुतेभ्यश्चिन्त्यमानेभ्यो वा विभावेभ्यो भयस्थायी भयानको रसो जायते । गावस्याचलनं स्तम्भः । कम्पनं करचरणादीनां प्रवेपनम् । एभिर्गात्र-मुख-दृष्टिविकारगलशोष-वैवर्ण्य-मूर्छा-दयोऽनुभावाः संगृह्यन्ते । व्यभिचारिणश्चास्य शङ्का-मोहदैन्य-आवेग-चपलता-त्रास-अपस्मार-मरण-स्तम्भ - स्वेद - रोमान्च - वेपथु - स्वरभेदवैवादय इति ॥ [१७] ११६ ॥ होनेपर भी न घबड़ाना 'धैर्य' कहलाता है। इसके द्वारा [अपनी] सेनाको उत्तेजित करने और दूसरेपर प्राक्षेप प्रादि अनुभावोंका पहरण होता है। 'दान' पदसे प्रमोद मध्यस्थता पोर शांत चेष्टादिका ग्रहण होता है । इस [वीररस के व्यभिचारभाव ति, मति, गर्व, आवेग, अमर्ष, उग्रता, स्मृति तथा रोमाञ्च प्रादि होते हैं। वीररसमें युद्धादिके होनेपर भी रौद्रत्व नहीं पाता है। क्योंकि उसमें उत्साह तथा न्यायको प्रधानता रहती है। रौद्ररसमें तो मोह महङ्कार और अन्याय प्रादिको प्रधानता रहती है इसलिए [वीर और रोब] ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं ।। [१६] ११८ ॥ प्रब भयानक [रसका वर्णन करते हैं] - [सूत्र १७३]-पताका, कीर्ति, भयोत्पादक [पिशाच उलूकादि], युद्ध [प्राजिः], निर्जन स्थान, और चोर-आफू प्रादि तथा [गुरु प्रादिके दोषोंसे भयानकरस उत्पन्न होता है। स्तम्भरोमाञ्च तथा कम्पनके द्वारा उसका अभिनय करना चाहिए। [१७] ११६ । ___ स्वर तथा प्राकारको विकृति द्वारा भयोत्पादक पिशाच उलूकावि रौद्र [पदसे गृहीत] होते हैं। यह [रोद्रपद वध तथा बन्धनका भी उपलक्षण [ग्राहक है। निर्जर घर या अरण्यादि 'शून्य' पदसे लिया जाता है । दोष अर्थात गुरु अथवा राजा मादिका अपराध। इन विभावोंके देखने या सुननेसे भयरूप स्थायिभाव वाले भयानक रसकी उत्पत्ति होती है। अंगको हिलनेइलनेका प्रभाव 'स्तम्भ' कहलाता है। हाथ-पैर आदिका हिलना 'कम्पन' कहलाता है । इसके द्वारा शरीर, मुख, या दृरिका विकार, गलेका सूख जाना, विवर्णता और मूळ प्रादि अनुभावोंका भी ग्रहण होता है । शर, मोह, बन्य, पावेग, चपलता, त्रास, अपस्मार, मरण, स्तम्भ, स्वेद, रोमाञ्च, कम्पन, स्वरभेव, वर्ण्य आदि इसके व्यभिचारिभाव है। [१७] ११६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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