Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ११६-१७, सू० १७०-७१ ] तृतीयो विवेकः
[ ३१३ अथ करुणः[सूत्र १७०]-मृत्यु-बन्ध-धनभ्रंश-शाप-व्यसन-सम्भवः ।
करुणोऽभिनयस्तस्य वाष्प-वैवर्ण्य-निन्दनः॥[१४]११६॥ शापोऽभिमतवियोगहेतुर्दिव्यप्रभाववतः आक्रोशः । व्यसनमनर्थः । अनेन देशोच्चाटनादेर्जातं विप्लवजातं संगृह्यते । एभ्यो विभावेभ्यः शोकस्थायी करुणो रसः सम्भवति । वाष्प-वैवाभ्यां निःश्वास-मुखशोप-स्मृतिलोप-सस्तगात्रतादयोऽनुभावाः सूचिताः। निन्दनमात्मनो देवस्यान्यस्य चोपालम्भः। अनेन रुदित-प्रलपिता-उरस्ताडनादि गृह्यते । व्यभिचारिणस्तस्य निर्वेद-लानि-चिन्ता-औत्सुक्य-मोह-श्रम-भयविषाद-दैन्य-व्याधि-जडता-उन्माद-अपस्मार-आलस्य-मरण-स्तम्भ-वेपथु-वैवर्ण्य अश्रुस्वरभेदादय इति ॥ [१४] ११६ ॥
अथ रौद्रः - [सूत्र १७१] -प्रहारासत्य-मात्सर्य-द्रोहाधर्षोपनीतिजः।
रौद्रःस चाभिनेतव्यो घातदन्तोष्ठपीडनः ॥[१५]॥११७॥ परमविदारयनो विदारयतश्च शस्त्रादिव्यापारणं प्रहारः। अनेन गृहभृत्याधुपमर्दनस्य ग्रहः। असत्येन बध-बन्धाद्यभिधायकवाक्पारुष्यस्य ग्रहः । गुणेष्वसूया मात्सर्यम् । द्रोहो जिघांसा । दारादिखलीकार-विद्या-कर्म-देश-जात्यादिनिन्दा-राज्य
अब मागे करुण [रसका निरूपण करते हैं]-.
[सूत्र १७०]-[किसी प्रियजनके मृत्यु, बन्धन, धननाश, शाप तथा विपत्ति प्रादि [को देखने]से करुणरस उत्पन्न होता है। प्रासुनों, [चहरेको विवर्णता तथा [भाग्यको] निन्दा माविके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है । [१३] ११६ ।
प्रियजनके वियोगको कराने वाली, दिव्य प्रभाव वाले व्यक्तिको अप्रसन्नता 'शाप' कहलाता है। अनर्थ का नाम] 'व्यसन' है। इससे देश-नाशसे होने वाले विप्लव-समुदायका प्रहरण होता है। इन विभावों के द्वारा शोक रूप स्थायिभाव वाला करुणरस उत्पन्न होता है। पांसू, [चेहरे की] विवर्णता, निःश्वास, मुख सूखना, स्मृतिका लोप, शरीरकी शिथिलता प्रादि अनुभाव भी सुचित होते हैं। निन्दासे अपनी निंदा, भाग्यको अथवा अन्धों को उलाहना देना [अभिप्रेत है । इससे रोने, प्रलाप करने और छाती पीटनेका भी संग्रह होता है । निर्वेद, ग्लानि, चिन्ना, प्रौत्सुक्य, मोह, श्रम, भय, विषाव, दैन्य, व्याधि, जडता, उन्माव, अपस्मार, मालस्य, भरण, स्तम्भ, वेपशु, वैवर्ण्य, अश्रु, स्वरभेद आदि इसके व्यभिचारभाव होते हैं।[१४]११६ ॥
अब आगे रौद्ररस [का लक्षणादि करते हैं]
[सूत्र १७१] -प्रहार, असत्य, मात्सर्य, द्रोह, भाषर्षण तथा प्रपनीतिसे रौद्ररस होता है और मारने, दांत शथा अोठोंके चबानेके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है । [१५]९१७ ॥
- दूसरेको काट देने वाला या न काटने वाला शस्त्रका व्यापार 'प्रहार' कहलाता है । इससे घर और भृत्य प्रादिक उपमर्दनका भी प्रहण होता है। 'प्रसत्य' पदसे बध, बन्ध भाविके कहने वाले कठोर वाक्यों माविका संग्रह होता है। गुणोंमें प्रसूया [वोषाविष्करण] 'मात्सर्य' कहलाता है। मारनेली इच्छा 'द्रोह' [कहलाती है । स्त्रियों प्राधिका अपमान,
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