Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ११४, सू० १६८ ] तृतीयो विवेकः
[ ३११ . अथ हास्यः[सूत्र १६८]-विकृताचार-जल्पांगाकल्पविस्मापनोद्भवः।
हास्योऽस्याभिनयो नासास्पन्दाश्रुजठरग्रहैः ॥[१२]११४॥ विकृतः प्रकृति-देश-काल-वयोऽवस्थादिविपरीतः । अंगस्य च विकृतत्वं विरूपो व्यापारः, खञ्ज-कुण्टत्वादि वा । उपलक्षणाच्च धाय-लौल्यादीनामनुचितानां मर्मोद्घाटन-अन्यहसनावलोकनादेश्च प्रहः। विस्मापनं कक्षानासावादन-ग्रीवा-कर्णचूडा-भ्र नर्तन-परभाषाद्यनुकरणादिकं च विटचेष्टितम् । एभ्यः स्वपरस्थेभ्यो हासस्थायी हास्यरसः प्रादुरस्ति । नासया गएडौष्ठादयो, अश्रुणा चाकुञ्चन-प्रसारणादयो नेत्रविकाराः, जठरग्रहेण पार्श्वग्रह-करताडन-मुखरागादयः संगृह्यन्ते । व्यभिचारिणश्चास्य अवहित्था-हर्षोत्साह-विस्मयादय इति ॥ [१२] ११४ ॥
[कारिकामें पाए हुए अगले] ताप, प्रभु तथा मन्यु पदोंके द्वारा विप्रलम्भश्रृंगारके परिदेवन प्रादि रूप अनुभावोंको सूचित किया गया है। उनमेंसे सम्भोग-शृंगारमें सुख रूप धृत्यादि भ्यभिचारिभाव होते हैं और विप्रलम्भभृगारमें मालस्य, उग्रता और जुगुप्साको छोड़कर दुःल-प्रधान निर्वेदादि [व्यभिचारिभाव होते हैं] ॥११३।।
हास्यरसअब मागे हास्यरसका निरूपण करते हैं
[सूत्र १६८]-विकृत माचरण, बातचीत, वेष-विन्यास और [नाक बजाना, बगल बजाना आदि रूप विस्मापन अर्थात् माश्चर्यजनक चेष्टाओंसे हास्यरस उत्पन्न होता है। नाक सिकोड़ने प्रभु पोर पेट पकड़ने प्रादिके द्वारा इसका अभिनय किया जाता है । [१२]११४॥
विकृत अर्थात् प्रकृति [ स्वभाव ]. देश, काल, आयु और अवस्था प्रादिके विपरीत [माचार हास्यजनक होता है ] । अंगोंका विकृतत्व [दो प्रकारका हो सकता है। एक तो] विरूप व्यापार [का किया जाना], अर्थात् [दूसरा] खञ्जत्व [लंगड़ापन] या निर्बलता प्रावि रूप होता है। [कारिकामें गिनाए गए विकृताचार प्रादिके] उपलक्षण रूप होनेसे [उनसे भिन्न] अनुचित पृष्टता लालच आदि और मर्म भागोंको दिखलाना, दूसरोंका मज़ाक बनाना, और [विशेष प्रकारसे] देखने आदिका भी ग्रहण होता है। [कारिकामें आए हुए] "विस्मापन' पदसे बगल और नाकका बजाना, गर्दन, कान, सिर या भौंहोंका मटकाना
और दूसरोंको बोलीका अनुकरण करना प्रावि रूप व्यापारका ग्रहण होता है । अपने में प्रथवा किसी दूसरेमें स्थित इन [विकृताचार प्रादिके देखने] से हासस्थायिभाव वालें हास्यरसको उत्पत्ति होती है। [कारिकामें पाए हुए नासास्पन्दके 'नासा' शब्दसे गाल और मोठ प्रादि [के चलाने का भी प्रहण होता है। प्रथ' पदसे [ नेत्रोंके ] सिकोड़ने और फैलाने मादि रूप नेत्रविकारोंका भी ग्रहण समझना चाहिए। [कारिकाके] 'जठरग्रह' शब्दसे [पेट पकड़ने के साथ ही पार्श्वग्रह हाथ पोटना, मुखराग माविका भी संग्रह होता है । 'प्रवाहित्था' [अर्थात् प्राकारगोपन] हर्ष, उत्साह, विस्मय प्रादि इस [हास्यरस] के व्यभिचारिभाव होते हैं।[१२]११४॥
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