Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ११३, सू० १६७ } तृतीयो विवेकः
[ ३०६ सम्भूतभोगयोर्माताद्यभावेऽपि कार्यान्तरव्यापृततया अननुसर्पर्ण विरहः ।
यथा
"अन्यत्र व्रजतीति का खलु कथा नाप्यस्य ताक् सुहृत् , यो मां नेच्छति नागतश्च ह हा कोऽयं विधेः प्रक्रमः ? इत्यल्पेतरकल्पना-कवलितस्वान्ता निशान्तान्तरे,
बाला वृत्तविवर्तनव्यतिकरा नाप्नोति निद्रां निशि ॥" इति ॥ [१०] ११२॥ अथोभयात्मनोऽपि शृंगारस्य विभावानुभावौ प्रतिपादयति[सूत्र १६७]-स्त्री-पुस-काव्य-गीततु-माल्य-वेषेष्ट-केलिजः । अभिनेयः स चोत्साह-चाटु-तापाश्रु-मन्युभिः ॥
- [११] ११३ ॥ इह शृङ्गारे स्त्री-पुसौ परस्परं मुख्यविभावौ। तयोश्चोत्तमप्रकृतिकयोरुपयोगी काव्यादिः । काव्यं च सरसमभिनेयानभिनेयभेदमिन्नम् । गीतेन वाद्यनृत्ताद्यपि गृह्यते । ऋतवो वसन्ताद्याः । माल्येन विलेपन-ताम्बूल-विशिष्टभवनादि लक्ष्यते । वेषो
जिनका सम्मिलन पहिले हो चुका है इस प्रकारके प्रेमियोंका माता-पिता प्राविके प्रतिबन्धके बिना भी अन्य कार्योंके कारण परस्पर मिलन न हो सकना विरह [ कहलाता है।
__ "मिरे पति कहीं प्रौर चला जाय ऐसा तो सोचना भी प्रसंगत है, और उनका कोई ऐसा मित्र भी नहीं है जो मुझे न चाहता हो [अर्थात् किसी मित्रने उनको रोककर मुझे कष्ट दिया हो ऐसी बातभी नहीं हो सकती है किन्तु फिरभी अभीतक पाए नहीं, हाय, भगवन् ! यह पया खेल कर रहे हैं जो वे अबतक नहीं पाए] इस प्रकारको अनेक भीषण कल्पनामोंमें दूबी हुई बाला रातको करवट बदलती हुई पड़ी है और उसको नींद नहीं पा रही है।" .
- यह [विरह-रूप-विप्रलम्भका उदाहरण है] ॥[१०]११२]
- अब [सम्भोग और विप्रलम्भ रूप] दोनों प्रकारके श्रृंगारके विभाव तथा अनुभावोंका वर्णन करते हैं।
[सूत्र १६७] -स्त्री पुरुष [शृंगारके मुख्य विभाव हैं] काव्य, गीत, ऋतु, माल्य, बेष अन्य इस वस्तु तथा [वन-विहार जलक्रीडा प्रावि स्प] केलियोंसे [भंगार] उत्पन्न होता है। ये सब श्रृंगारके कारण विभाव है। नाटकमें] उत्साह [एक-दूसरेको] चाटुकारिता, संताप, रुदन तथा मान प्रादिके द्वारा उसका अभिनय करना चाहिए । [११]११३॥
इनमेंसे स्त्री-पुरुष एक-दूसरेके प्रति मुख्य विभाव है। उत्तम प्रकृतिवाले उन दोनोंके उपयोगी काव्यादि [भी गौण कारण होनेसे गौण विभाव कहे जा सकते हैं] । काव्य पबसे अभिनेय और अनभिनेय [अर्थात् एश्यकाम्य तथा अव्यकाव्य ] भेदसे युक्त सरस कायका प्रहण करना चाहिए । 'गीत' पबसे [उसके सहकारी] बाब और नृत्य प्रादि भी अहस होता है। 'ऋतु परसे वसन्तादि [अभिप्रेत है। माल्य परसे विलेपम, ताम्बूल और विशेष भवन प्राविका भी प्रहल समझना चाहिए। पर पसे विशेष प्रकारके वस्त्र प्रलंकाराविप
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