Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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३०४ ]
दर्पणम्
[ का० ११० सू० १६४
च पोषकत्वम् । यद्वा व्यभिचरन्ति स्थायिनि सत्यपि केऽपि कदापि न भवन्तीति व्यभिचारिणः, स्वविभावव्यभिचारिणः भावे भावात् अभावेऽभावाच्च । रसायनमुपयुक्तवतो हि ग्लानि - आलस्य श्रमप्रभृतयो न भवन्त्येव ।
तत्र स्थायिनो रत्यादयः संविदात्मकत्वादजडा एव । धैर्यादीनां खेदादीनां चानुभावानां वनितादीनां पर्वतादीनां च विभावानां निर्वेदादीनां व्याध्यादीनां च व्यभिचारिणां यथासंख्यं संविन्मयत्व - शरीरधर्मत्वादिना जडाजडात्मकत्वम् ।
एते चानुभावादयः स्थायिनं प्रति कार्य-कारण- सहचारिरूपत्वादेवाप्रधानम् । स्थायी तु प्रकर्षप्राप्त्या एषां प्रच्छादकत्वात् प्रधानम् । तथा व्याघ्रादेर्विभावस्य क्रोधनिर्वचन करते हैं ] स्थायिभावके विद्यमान होनेपर भी कभी कोई [ व्यभिचारिभाव ] नहीं होता है इसलिए [ स्थायिभावके साथ प्रनियत अर्थात् ] व्यभिचारी होनेसे व्यभिचारिभाव [कहलाते हैं] अर्थात् श्रपने विभावके होनेपर भी न होनेसे और [अपने विभावादि रूप काररणोंके ] न होनेपर भी होनेसे [ये] अपने विभावोंके व्यभिचारिभाव [कहलाते] हैं। क्योंकि रसायनका उपयोग करनेवालोंको ग्लानि, श्रालस्य, थकावट मादि नहीं होते हैं [इसलिए जो अपने कारण के होनेपर श्रवश्य होता है और उसके न होनेपर नहीं ही होता है वह 'श्रव्यभिचारी' कहलाता है । और जो कारणके न होनेपर भी हो या कारणके होनेपर भी न हो वह 'व्यभिचारी' कहलाता है ।
उनमें से रत्यादिरूप स्थायिभाव ज्ञानस्वरूप होनेसे चेतनात्मक ही होते हैं। धैर्यादि [रूप मानस ] प्रनुभाव ज्ञानरूप होनेसे प्रजड़ तथा स्वेदादि [रूप शारीरिक] अनुभाव जड़ात्मक [होते ] हैं । वनितादि [विभाव चेतन रूप] तथा पर्वतादि विभाव [श्रचेतन रूप होते हैं] प्रौर निर्वेदादि [ व्यभिचारभाव ज्ञान रूप होनेसे अजड़ ] तथा व्याध्यादि रूप व्यभिचारिभाव [ शरीरधर्म होनेसे जडात्मक होते हैं । अतः ये क्रमशः ] ज्ञानरूप [ प्रजड़ ] तथा शरीरधर्मादि रूप [जड इस प्रकार ] जड और चेतन उभयरूप होते हैं ।
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किन्तु वेदान्ती गुग्ण
इस अनुच्छेद में ग्रन्थकारने स्थायिभावोंको केवल चेतनस्वरूप तथा अनुभाव, विभाव एवं व्यभिचारभावों को चेतन अचेतन उभयविव माना है । स्थायिभावोंको चेतनस्वरूप मानने का यह हेतु दिया है कि वे ज्ञानात्मक होते हैं । वेदान्तादि शास्त्रोंके अनुसार ज्ञानात्मकता ही चेतनाका स्वरूप है । स्थायिभाव ज्ञानात्मक 'संविन्मय' होनेसे चेतन स्वरूप ही है यह ग्रन्थकारका श्राशय है । न्याय सिद्धान्तमें ज्ञान चेतन श्रात्माका गुण है। स्वयं चेतन नहीं है । नैयायिक गुण र गुणी अर्थात् ज्ञान और प्रात्माका भेद मानते हैं । गुणीका भेद नहीं मानते हैं। इसलिए उनके मतमें ज्ञान चेतनका गुण नहीं अपितु चेतनस्वरूप ही है । इस सिद्धान्तको लेकर ग्रन्थकारने यहाँ स्थायिभावोंको ज्ञानस्वरूप होने से चेतन ही माना है । और अनुभाव, विभाव व व्यभिचारिभावों में से कुछ ज्ञानरूप भी होते हैं और कुछ ज्ञानसे भिन्न शरीरधर्मभूत भी होते हैं इसलिए उनको ज माना है । श्रागे स्थायिभावोंको प्रधानता तथा अनुभाव-विभाव दिखलाते हुए उनके गुरण प्रधानभावका निरूपण करते हैं
श्रजडात्मक अर्थात् उभयरूप
दिकी श्रप्रधानताका हेतु
ये अनुभावादि स्थायिभावके प्रति कार्य, कारण तथा सहकारी रूप होनेसे प्रप्रधान माने जाते हैं । स्थायिभाव प्रकर्षको प्राप्त होकर इन [ अनुभावादि] का प्रच्छादक होने जानेसे
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