Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्प
[ का० १०६, सू० १६३
`रसजन्याः तत्र स्पष्टरूपाः । अन्यत्र तु प्रेक्षकादौ ध्यामलेनैव रूपेण । विभावानामपरमार्थ सतामेव काव्यादिना दर्शनात् । अत एव व्यभिचारिणोऽनुभावाश्च रसानु - सारेणास्पष्टा एव । अत एव प्रेक्षकादिगतो रसो लोकोत्तर इत्युच्यते ।
काव्यस्य च रसाविर्भावकविभाववत्वात् सरसत्वम् । न पुनः काव्यमेव रसः, काव्ये आधारे वा रसः । श्रितोत्कर्षो हि चेतोवृत्तिरूपः स्थायी भावो रसः । स चाचेतस्य काव्यस्यात्मा आधेयो वा कथं स्यात् ? ततः काव्यार्थ प्रतिपत्तेरनन्तरं प्रतिपतृणां रसाविर्भावः ।
प्रतिपत्तारश्चात्मस्थ सुखमिव रसमास्वादयन्ति । न पुनर्बहिःस्थं रसं मोदकमिव प्रतियन्ति । अन्यो हि मोदकस्यास्वादोऽन्यश्च प्रत्ययो रसस्य । न हि बहिस्थस्य रसस्य प्रत्ययमात्रेण रसास्वादश्चर्वणात्मकः संगच्छते । भयानक- करुणविभावाद्धि काव्यार्थात् प्रतिपत्तुश्चेतोधर्मतया स्थितौ भूय- शोकौ भयानक - करुणतया परिणमतः । यदि च प्रतिपत्तुः स्थायी एव न रसतया भवति तदा बहिःस्थस्य रसस्य प्रत्ययोऽपि न पुरुषमें विभावोंके वास्तविक होनेसे रसकी स्पष्टरूपसे प्रतीति होती है। इसलिए उनमें रससे उत्पन्न होने वाले [ रसके कार्यभूत] अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव स्पष्टरूप होते हैं । अन्यत्र प्रेक्षक आदिमें [ ध्यामल अर्थात् ] अस्पष्ट रूपमे ही [ अनुभाव व्यभिचारिभाव होते हैं] काव्याविके द्वारा वास्तव में श्रविद्यमान विभावादिके हो उपस्थित किए जानेसे [ उनके द्वारा होनेवाली रसप्रतीति भी अस्पष्ट ही होती है] । इसीलिए [प्रेक्षकादिमें] व्यभिचारिभाव तथा अनुभाव भी रसके अनुसार अस्पष्ट ही होते हैं । अत एव प्रेक्षक आदिमें रहने वाला रस [ प्रसत् विभावोंसे उत्पन्न और अस्पष्ट अनुभाव व्यभिचारिभाव युक्त होनेसे] लोकोत्तर कहलाता है । रसके आविर्भाव करानेवाले विभावादिसे युक्त होनेसे काव्यको सरस माना जाता है । न तो काव्य हो रस है और न काव्य रूप श्राधार में रस रहता है। [इसलिए काव्यकी सरसताका उपपादन रसके श्राविर्भावक विभावादिके उसमें विद्यमानं होनेके कारण ही किया जा सकता है ] । परिपुष्ट हुप्रा चित्तवृत्ति रूप स्थायिभाव हो रस [ कहलाता ] है । वह प्रचेतन काव्यका श्रात्मा या आधेय नहीं हो सकता है । इसलिए काव्य के अर्थको समझ लेने के बाद समझने वाले [प्रेक्षक या श्रोता ] के भीतर रसका अविर्भाव होता है ।
श्रौर अनुभव करने वाले [प्रेक्षकादि ] अपने भीतर रहने वाले सुखके समान, रसका आस्वादन करते हैं। मोदक प्रादिके समान बाहर रहने वाले रसका ग्रहरण नहीं करते । मोदक प्रादिका श्रास्वादन अन्य प्रकारका होता है और रसका ज्ञान और तरहका । बाहर रहने वाले रसके ज्ञानमात्रसे चर्वणात्मक रसास्वादका उपपादन नहीं हो सकता है [ श्रर्थात् यदि मोदकादिके समान रसको बहिस्थ बाहर रहनेवाला मान लिया जाय तो उसकी चर्जरगाका उपपादन नहीं हो सकता है। इसलिए बाह्य रसका अनुभव नहीं होता है श्रपितु अनुभव करने वालेके हृदय में भीतर रहने वाले सुखादिके समान ही रसका आस्वादन होता है ] । क्योंकि भयानक तथा कररण विभावोंका वर्णन करने वाले काव्यके अर्थसे ज्ञाता [ सामाजिक ] के चित्त-धर्मके रूप में स्थित भय तथा शोक [स्थायिभाव] भयानक तथा करुण रसके रूपमें परिरगत हो जाते हैं । यदि सामाजिकका स्थायिभाव ही रस रूप न माना जाय तो फिर बाहर रहनेवाले रसकी प्रतीति भी नहीं हो सकती है । क्योंकि काव्य या नटमें या कहीं अन्यत्र रस
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