Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम्
[ का० १०६, सू० १६३ छात्र च रत्यादेर्विभावैराविर्भूतस्य पोषकारिणो व्यभिचारिणो रसिकगता एव ग्राह्याः । यदा हि विभावैः ख्यादिभिः, काव्यनाट्यगतैर्वा अन्यस्य रत्यादयो रसोन्मुखत्वेनोन्मील्यन्ते, तदा यथायोगं व्यभिचारिणोऽपि तत्र प्रादुःषन्ति । न हि ख्यादिचिन्तां शृङ्गारो, धृतिं हास्यो, विषादं करुणो, श्रमर्ष रौद्रो, हर्ष वीरः, त्रासं भयानकः, शंकां बीभत्सः, श्रौत्सुक्यमद्भुतो, निर्वेदं शान्तः सहचारिणं बिना प्रादुर्भवति ।
श्रन्यगतचेतसो विरक्तचेतसो वा वाक्यार्थावबोधे वनितादिदर्शनेऽपि वा चिन्ताद्यभावे रसाभावात् । सौक्ष्म्या दाशुभावाच्च क्वचिदनुपलक्षणेऽपि न दोषः । प्रादुर्भूताश्च व्यभिचारिणो रसोन्मुखं स्थायिनं पोषयन्तो रसत्वमापादयन्ति । अत एव रसत्वोन्मुखानां स्थायिनां व्यभिचारिणः सहचारिणो, विभावास्तु प्राग्भाविनः ।
है। जिसकी चितवृत्ति हो वह व्यक्ति उस चितवृत्तिका प्राधार हुआ ।] चित्तवृत्ति-विशेष ही रस है । [ इसलिए इस प्रतीति में उसके प्राधारभूत रसिकका सम्बन्ध अवश्य रहता है। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है ] ।
मौर यहां विभावोंसे प्राविर्भूत होने वाले रति आदि [ स्थायिभाव ] को पुष्ट करने वाले व्यभिचारिभाव रसिकगत हो लेने चाहिए। [ नटगत या अनुकार्यगत व्यभिचारियों से सामाजिकगत रत्यादिको पुष्टि नहीं होती हैं यह अभिप्राय है ] । जब [लोकमें] स्त्री प्रादि विभावों से, अथवा काव्य नाट्यगत विभावोंसे दूसरोंको रत्यादिका रसोन्मुख रूपसे उन्मीलन होता है तब [उन सामाजिकों] के भीतर यथोचित व्यभिचारिभावोंका भी आविर्भाव होता है । क्योंकि स्त्री प्रादिकी चिन्ता [ रूप व्यभिचारिभाव ] के बिना शृङ्गाररस, धृति [ रूप . व्यभिचारिभाव] के बिना हास्य, विवाद [ रूप व्यभिचारिभाव ] के बिना करुण, अमर्षके बिना रौद्र, हर्षके बिना वीर, त्रास [रूप सहचारी] के बिना भयानक, शंका [रूप सहचारी] के बिना बीभत्स, श्रौत्सुक्य [रूप सहचारी] के बिना श्रद्भुत और निर्वेद [रूप सहचारी ] के बिना शान्तका प्राविर्भाव नहीं हो सकता है। क्योंकि चित्तके दूसरी ओर लगे होनेपर प्रथवा विरक्तचित्तको चिन्तादि [ सहचारियों] के प्रभाव में [काव्य नाटकके] वाक्योंके अर्थका ज्ञान होने अथवा [ साक्षात् रूपमें] स्त्री प्रादिके दर्शन होनेपर भी शृङ्गार रसको अनुभूति या उत्पत्ति नहीं होती है । [ कहीं यदि चितादिके बिना भी रसकी प्रतीति अनुभव हो तो वहाँ यह समझना चाहिए कि] सूक्ष्म होनेके कारण अथवा प्रत्यन्त शीघ्रताके काररण [उन सहचारियोंको स्थिति होनेपर भी] उनके न दिखलाई देनेके कारण उसमें कोई दोष नहीं प्राता है । [ इस प्रकार लौकिक स्त्री प्रादि विभावों अथवा काव्य नाटकगत विभावोंसे रसिकोंमें] प्रादुर्भूत होने वाले व्यभिचारिभाव रसोन्मुख स्थायिभावको पुष्ट करते हुए [उसको ] रसत्वको प्राप्त कराते हैं । इसीलिए व्यभिचारिभाव रसोन्मुख स्थायिभावोंके सहचारी [कहलाते] हैं । और विभाव तो [स्थायिभावोंके ] पूर्ववर्ती [अर्थात् कारण कहलाते ] हैं ।
रसके लक्षणकी कारिकामें ग्रंथकारने 'श्रितोत्कर्षो विभावव्यभिचारिभिः यह कहा था । इसमें व्यभिचारिभावसे ग्रंथकार रसिकगत व्यभिचारिभावोंका ग्रहण करना चाहते हैं । यद्यपि व्यभिचारिभाव नटादिमें भी हो सकते हैं किन्तु उन सबको वे केवल विभाव मानते हैं । मटगत अनुभाव व्यभिचारिभाव ग्रन्थकार की दृष्टिमें विभावकोटिके ही प्रन्तगंत होते हैं । इसलिए यहाँ व्यभिचारिभाव सामाजिकगत ही लेने चाहिए। इसी बात को और अधिक खोल
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