Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १०६, सू० १६३ ] तृतीयो विवेकः
— एवं च लोके काव्ये वा सर्वरसिकसाधारण रसास्वादो न पुनः सर्वथाप्याधारानुल्लेखी। आधारोल्लेखनिरपेक्षाथाश्चित्तवृत्तेः कस्याश्चिदनुपलक्षणात् । चित्तवृत्तिविशेषश्च रसः। यह पाठ भी अत्यन्त भ्रामक पाठ है। मूल पाण्डुलिपिमें तो यहाँ 'सोऽन्याप्रतिक्षेपात्मा' पाठ था। किन्तु पूर्व संस्करणके सम्पादक महोदयने 'सोऽन्यान् प्रति क्षेपात्मा' यह पाठ सुझाया है । किन्तु यह पाठ ठीक नहीं है। 'सोन्याप्रतिक्षेपात्मा' यही ठीक है । इसका अभिप्राय यह है कि काव्य-नाटक में समर्पित विभावादिसे जो एक व्यक्तिको रसास्वाद होता है वह भन्योंका प्रतिक्षेप नहीं करता है। अर्थात् प्रत्योंकी रसप्रतीतिका बाधक या निषेध करने वाला नहीं होता है। काव्य नाटकमें जिस समय किसी एक व्यक्तिको रसास्वाद हो रहा है उसके साथ ही अन्य अनेक व्यक्तियों को भी रसास्वाद होता है । इसी बातको ग्रन्थकारने यहाँ 'सोऽन्याप्रतिक्षेपात्मा' पदसे दिखलाया है । इसलिए यही पाठ ठीक है । पूर्व-संस्करणमें सुझाया गया पाठ ठीक नहीं है।
पब आगे 'प्रयोगव्यवच्छेदेन न पुनरन्योगव्यवच्छेदेन' वाली पंक्ति पाती है। इसका मभिप्राय यह है कि काव्य नाटकमें जो एक व्यक्तिका रसास्वाद होता है वह 'अयोगव्यवच्छेदेन' उस विशेष व्यक्तिका होता है 'प्रन्ययोगव्यवच्छेदेन' नहीं। 'प्रयोगव्यवच्छेद' का अर्थ उस व्यक्तिमें रसके प्रयोग अर्थात् प्रभावका व्यवच्छेदक अर्थात् निषेधक अर्थात उसमें सद्भावका सूचक रूप होता है । इसमें 'प्रयोग' और 'व्यवच्छेदक' दो शब्द पाए हैं। इन दोनोंका अर्थ अभाव-परक है । प्रभावका प्रभाव अर्थात् भाव होता है । दो निषेधोंके एक साथ प्रयुक्त होने पर उनका अर्थ भाव हो जाता है। यहाँ प्रभाव परक 'प्रयोग' तथा 'व्यवच्छेदक' दो शब्दोंका एक साथ प्रयोग होनेसे उनका अर्थ भाव रूप बन जाता है । अर्थात् काव्य और नाटकोंमें जो एक व्यक्तिका रसास्वाद होता है वह उस व्यक्तिमें रसकी सत्ताका ही बोधक होता है।
'न पुनरन्ययोगव्यवच्छेदेन' यह इस पंक्तिका दूसरा भाग हैं। इसका अर्थ 'अन्ययोग' अर्थात् अन्योंके साथ सम्बन्धका 'व्यवच्छेदक' अर्थात् निषेधक रूपमें 'न' प्रर्थात् नहीं है यह होता है । अर्थात् काव्य नाटकोंमें जो एकका रसास्वाद होता है वह 'मन्ययोगव्यवच्छेदक' प्रर्थात् अन्य व्यक्तियोंके साथ उस रसके सम्बन्धके निषेधकके रूपमें नहीं होता है। अर्थात् काध्य नाटक में एक व्यक्तिके रसास्वादका अर्थ यह नहीं हो सकता है कि अन्य किसीको रसास्वाद न हो। लोकमें तो स्सास्वाद विशेष व्यक्तियों तक सीमित भी हो सकता है। उस दशामें एक व्यक्तिका रसास्वाद अन्य व्यक्तियोंके रसास्वादमें बाधक हो सकता है। किन्तु काव्य नाटकमें एक ही सामग्रीसे एक व्यक्तिको जो रसास्वाद होता है वह उसी सामग्रीसे अन्योंके होने वाले रसास्वादमे बाधक नहीं होता है । यह ग्रन्थकारका मभिप्राय है।
__ इस प्रकार लोकमें और काव्यमें [दोनों जगह सब रसिकोंके लिए साधारण स्पसे रसास्वाद होता है। [लोकमें विशेष-विषयक रसास्वाद केवल विशेष रसिक तक सीमित होता है। किन्तु सामान्य विषयक रसास्वाद रसिकमात्रसे सम्बन्ध रखता है। इस अभिप्रायसे 'सर्वरसिकसाधारणः' कहा है । रसके माधारका सर्वथा अमुल्लेख करने वाला नहीं होता है भाषारका उल्लेख जिसमें न हो इस प्रकारको किसी भी चित्तवृत्तिके न पाए जानेसे [चित्तवृत्ति के माधारके उल्लेखसे रहित रसानुभूति नहीं हो सकती है। चित्तवृत्तिका मापार रसिक
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