Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 414
________________ का० १०६, सू० १६४ ] तृतीयो विवेकः [ २६७ यत्र तु परानुरक्तां वनितामवलम्ब्य सामान्यविषया रतिरुपचयमुपैति, तत्र न नियतविषयः शृङ्गाररसास्वादः । विभावानां सामान्यविषये स्थाय्याविर्भावकत्वात् । बन्धुशोकार्ता च रुदतीं स्त्रियमवलोक्य सामान्यविषय एव करुणरसास्वादः । एवमन्येष्वपि रसेषु विशेष - सामान्य विषयत्वं द्रष्टव्यम् । उसके विषय में अपनी रतिको श्रृङ्गाररसके रूपमें आस्वादन करता है। [इसी प्रकार लोकमें वास्तविक रूपसे विद्यमान सीता-रामादि रूप विभावमें नियत विशेषसे सम्बद्ध रूपमें ही रसास्वादको अनुभूति होती है। यहाँ रसकी प्रतीति विशेष विषयक और लौकिकी हुई । आगे सामान्य विषयक रसकी प्रतीतिको प्रलौकिकता का उपपादन करते हैं ] । जहाँ [लोकमें वास्तविक रूपमें स्थित, पर] अन्य में अनुरक्त वनिताको [अर्थात् परकीया नायिका ] को लेकर [ अनेक व्यक्तियों में ] सामान्य विषयक रति परिपोषरण होता है वहाँ नियत व्यक्तिविशेषसे सम्बद्ध रूपमें श्रृङ्गाररसका प्रास्वाद नहीं होता है [अर्थात् एक स्त्रीसे अनेक व्यक्तियों को सामान्यरूपसे शृङ्गारानुभूति होती है] क्योंकि [ऐसे उदाहरणों में स्त्री प्रादि रूप ] विभावोंसे सामान्य रूपसे [अनेक व्यक्ति विषयक रतिका प्रावि] स्थायिभाव का प्राविर्भाव होनेसे [सामान्य-विषयक हीं रसास्वाद होता है] । इसी प्रकार अपने किसी प्रिय बन्धुके वियोगसे पीड़ित युवतिको रोते हुए देखकर [ देखने वाले अनेक व्यक्तियोंको ] सामान्य विषयक ही करुणरसका श्रास्वाद होता है। [इस प्रकार इन दो उदाहरणोंके द्वारा ग्रन्थकारने यह दिखलाया है कि शृङ्गार और करुण दोनों रसोंकी सामान्य-विषयक तथा विशेष विषयक दोनों प्रकारकी स्थिति होती है। यही बात श्रन्य रसोंके विषयमें भी समझनी चाहिए। इसी बात को अगली पंक्ति में लिखते हैं] । इसी प्रकार ग्रन्य रसोंमें भी सामान्यविषयत्व और विशेष विषयत्व समझ लेना चाहिए । यह जो रसोंका सामान्य विषयत्व तथा विशेष विषयत्व दिखलाया है वह वास्तविक रूपसे विद्यमान परमार्थेन सन्तः ' विभावादिके द्वारा उत्पन्न रसोंके विषय में कहा गया है । 'परमार्थसतां' वास्तविक रूप में विद्यमान विभावादिकी स्थिति लोक में ही होती है, काव्य नाटक आदिमें नहीं । इसलिए यह सामान्य और विशेषगत द्विविध रसोंकी स्थिति भी लोक में ही हो सकती है । काव्य या नाटकमें नहीं । काव्य और नाटक में साधारणीकरण व्यापार द्वारा सामान्य रूपसे अनेक व्यक्तियोंमें रसकी अनुभूति होती है। इस बातको अगले प्रकरण में दिखला रहे हैं । किन्तु यहाँ एक बात विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है और वह यह बात है कि अन्य आचार्योंने रसको अलोकिक माना है। लोकमें होने वाली स्त्री-पुरुषकी परस्पर रतिको अन्य प्राचार्योंने रस नहीं माना है । काव्य नाटकमें होने वाले विभावादिको ही उन लोगोंने विभावादि शब्दसे कहा है । उनके मत में विभावादि शब्द भी लोकके नहीं काव्य नाटकके क्षेत्र में ही सीमित शब्द है । यहाँ ग्रन्थकारने लौकिक स्त्री-पुरुष श्रादिको भी ' विभावादि' शब्दोंसे और उनकी रति आदिको भी 'रस' शब्द से निर्दिष्ट किया है । इसीलिए उन्होंने सामान्य विषयक और विशेष विषयक द्विविध रसोंकी स्थिति मानी है। उनका यह सिद्धान्त अन्य प्राचार्योंसे विलक्षण है । इस प्रकार लौकिक रसादि विषयक विवेचना करनेके बाद अब ग्रन्थकार भगले प्रकरण में काव्य-नाटकगत रसोंकी विवेचना करते हुए लिखते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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