Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् । का० १०६, सू० १६४ ___नटेऽपि च रसं गमयन्त्येव यदा रसकार्या भवन्ति । न च. नटस्य रसो न भवतीत्येकान्तः । पण्यस्त्रियो हि धनलोभेन पररत्यर्थ रतादि विपन्चयन्त्यः कदाचित् स्वयमपि परां रतिमनुभवन्ति । गायनाश्च परं रजयन्तः कदाचित् स्वयमपि रज्यन्ते । एवं नटोऽपि रामादिगतं विप्रलम्भाद्यनुकुर्वाण: कदाचित् स्वयमपि तन्मयीभावमुपयात्येवेति तद्गता अपि रोमाञ्चादयस्तत्र रसं गमयेयुरेव । अत एव 'स्पष्टानुभाव' इत्युक्तम् । .
रोमाञ्चादयश्च ये स्त्री-पुस-नट-काव्यस्थास्ते परेषां रसजनकत्वाद् विभावमध्यवर्तिनः । प्रेक्षक-श्रोतृ-अनुसन्धात्रादिस्थितास्तुरसस्य कार्याणि सन्तो व्यवस्थापकाः ।
यत्र विभावाः परमार्थेन सन्तः प्रतिनियतविषयमेव स्थायिनं रसत्वमापादयन्ति, तत्र नियतविषयोल्लेखी रसास्वादप्रत्ययः । युवा हि रागवती युवतिमवलम्ब्य तद्विषयामेव रतिं शृङ्गारतयास्वादयति । नटमें रसके न होनेपर भी अनुभाव उत्पन्न होते हैं। तब जिन अनुभावोंकी रसके साथ ध्याप्ति या अविनाभाव ही नहीं है उनसे रसकी प्रतीति या अनुमिति कैसे हो सकती है ? इस शंकाका एक समाधान ग्रन्थकारने यह दिया कि नटगत अनुभावोंसे रसकी प्रतीति नहीं होती है अपितु प्रेक्षकगत कार्यभूत अनुभावोंसे रसकी प्रतीति होती है। अब इसी विषयमें दूसरा समाधान यह दे रहे हैं कि नटमें रस नहीं होता है यह बात भी नहीं है। नटमें भी रस हो सकता है । इसलिए नटगत अनुभाव भी रसके पविनाभूत हैं । इसी बातको प्रन्थकार अगली पंक्तियों में निम्न प्रकार लिखते हैं
[नटमें रहने वाले अनुभावारि] जब [नटगत] रसके कार्य [अर्थात् नटगत रससे उत्पन्न होते हैं तब वे नटमें भी रसका अनुमान कराते हैं। और नटमें रस होता ही नहीं है यह कोई नियम नहीं है। वेश्याएं जो घनके लोभसे दूसरोंको [भोगके लिए] रति प्रादिका भवसर देती हैं कभी स्वयं भी अत्यन्त मानन्दका अनुभव करती हैं । और गाने वाले दूसरोंके मनोरंजनके लिए गाते हुए कभी स्वयं भी मानन्द-मन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार नट भी रामादिगत विप्रलम्भशृङ्गारका अनुकरण करते हुए कभी स्वयं भी तन्मयीभावको प्राप्त हो हो जाता है । इसलिए उसमें रहने वाले रोमांच मादि [अनुभाव] भी [उसके भीतर रहने वाले] रसका अनुमान कराते हैं । इसीलिए [कारिकामें] 'स्पष्टानुभावनिश्चयः' यह कहा गया है। [मर्थात प्रेक्षकमें या मटमें जहाँ भी रसके कार्यभूत अनुभव स्पष्ट रूपसे प्रतीत हों वहीं ये रसका अनुमान करा सकते हैं।
[लोकमें] स्त्री, पुरुष, नट, तबा काव्यमें स्थित जो रोमाञ्च आदि [अनुभाव होते है वे अन्योंमें [स्थित] रसके जनक होनेसे [रसके कारणभूत] विभावोंमें [गिने जाते हैं। [इसके विपरीत नाटकादि दृश्य-काव्यक] प्रेक्षक [भव्य-काव्यके] श्रोता तथा [उन दोनोंके] अनुसन्धाता [अर्थात् निर्माता कवि]में स्थित [रोमाञ्चादि] तो रसके कार्य रूप होनेसे [रसके व्यवस्थापक अर्थात् निश्चायक होते हैं।
जहां [अर्थात् लोकमें] वास्तविक रूपमें स्थित विभाव [सीता राम मावि निश्चित व्यक्ति-विशेषमें [रति प्रावि रूप] स्थायिभावको रसरूपताको प्राप्त कराते हैं वहां रसका मास्वाद नियत व्यक्तिविशेषमें होता है। जैसे कि [लोकमें कोई] युवक किसी युवतिको लेकर
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