Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १०६, सू० १६३ ] तृतीयो विवेकः
- [ २६१ यत् पुनः सर्वरसानां सुख-दुखात्मकत्वमुच्यते तत् प्रतीतिबाधितम् । आस्तां नाम मुख्यविभावोपचिताः, काव्याभिनयोपनीतविभावोपचितोऽपि भयानको बीभत्सः करुणो रौद्रो वा रसास्वादवतामनाख्येयां कामपि क्लेशदशामुपनयति । अतएव भयानकादिभिरुद्विजते समाजः । न नाम सुखास्वादादुद्वेगो घटते ।
यत् पुनरेभिरपि चमत्कारो दृश्यते स रसास्वादविरामे सति यथावस्थितवस्तुप्रदर्शकेन कवि-नटशक्तिकौशलेन । विस्मयन्ते हि शिरश्छेदकारिणापि प्रहारकुशलेन वैरिणा शौण्डीरमानिनः। अनेनैव च सर्वाङ्गाह्लादकेन कविनटशक्तिजन्मना चमकारेण विप्रलब्धाः परमानन्दरूपतां दुःखात्मकेष्वपि करुणादिषु सुमेधसः प्रतिजानते। एतदास्वादलौल्येन प्रेक्षका अपि एतेषु प्रवर्तन्ते । कवयस्तु सुख-दुःखात्मकसंसारानुरूप्येण रामादिचरितं निबध्नन्तः सुख-दुःखात्मकरसानुविद्धमेव ग्रनन्ति.। पानकमाधुर्यमिव च तीक्ष्णास्वादेन दुःखास्वादेन सुतरां सुखानि स्वदन्ते इति । अपि च सीतायाः हरणं, द्रौपद्याः कचाम्बराकर्षणं, हरिश्चन्द्रस्य चाण्डालदास्यं, रोहिताश्वस्य मरणं, प्रकाशित करने वाले शृङ्गार, हास्य, वीर, अद्भुत और शान्त [ये पाँच सुखप्रधान रस हैं। और अनिष्ट विभावादिके द्वारा स्वरूप लाभ करने वाले करुण, रौद्र, बीभत्स और भयानक ये चार दुःखात्मक रस हैं।
[कुछ प्राचार्योके द्वारा] जो सब रसोंको सुखात्मक बतलाया जाता है वह प्रतीति के विपरीत [होनेसे प्रमान्य असंगत है। मुख्य [अर्थात् वास्तविक] विभावोंसे उत्पन्न [करुण मादिकी दुःखात्मकताकी तो बात ही जाने दो, काव्यके अभिनयमें प्राप्त [बनावटी] विभाव प्रादिसे उत्पन्न हुप्रा भी भयानक, बीभत्स, करुण अथवा रौद्ररस प्रास्वादन करने वालोंकी कुछ प्रवर्णनीयसी क्लेशदशाको उत्पन्न कर देता है। इसी लिए भयानक प्रादि [दृश्यों] से सामाजिकोंको घबराहट होती है। [यदि सब रस सुखात्मक ही होते तो] सुखास्वादसे तो किसीको उद्वेग नहीं होता है। [इसलिए करुणादि रस दुःखात्मक ही होते हैं ।
और जो इन [करुणादिरसों से भी सहृदयोंमें चमत्कार दिखलाई देता है वह रसास्वादके समाप्त होनेके बाद यथास्थित जैसे-तैसे पदार्थोको दिखलाने वाले कवि और नटजनोंके कौशलके कारण होता है। क्योंकि वीरताके अभिमानी जन भी [एक ही प्रहार में] सिरको काट डालने वाले, प्रहार-कुशल वरी [के कौशलको देखकर, उस] से भी विस्मय [और तज्जन्य चमत्कार] को अनुभव करते हैं। सम्पूर्ण अङ्गोंको आनन्द प्रदान करने वाले [सब इन्द्रियोंके आह्लादक], कवि और नटजनोंको शक्ति [कौशल से उत्पन्न चमत्कारके द्वारा धोखे में प्राकर बुद्धिमान लोग भी दुःखात्मक करुणादि रसोंमें भी परमानन्द रूपता समझने लगते हैं । और इनका प्रास्वादन करनेके लोभका संवरण न कर सकनेके कारण प्रेक्षक सामाजिक भी इन [के प्रास्वादन] में प्रवृत्त होते हैं । कविगण तो सुख-दुःखात्मक संसारके अनुरूप ही रामादिके चरित्रको रचना करते समय सुख-दुःखात्मक रसोंसे युक्त ही [काव्य नाटक आदि की रचना करते हैं। पने का माधुर्य जैसे [उसमें पड़ी हुई मिर्चके तीखे प्रास्वादसे और अधिक अच्छा प्रतीत होता है इसी प्रकार [करुणादि दुःखप्रधान रसोंमें] दुःखके तीखे प्रास्वावसे मिलकर सुखोंकी अनुभूति और भी अधिक प्रानन्ददायिनी बन जाती है। और [नाटकादिमें ] सोताके हरण, द्रौपदीके केश एवं वस्त्रोंके खींचे जाने, हरिश्चन्द्रको चाण्डालके
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