Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ६०-६१, सू० १३८ ] द्वितीयो विवेकः
[ २३६ दिव्यस्त्रीहेतुसंग्रामो निर्विश्वासः सविड्वरः ।।
स्त्र्यपहार-भेद-दण्डः प्रायो द्वादशनायकः ॥ [२६] ६१ ॥
ईहा चेष्टा मृगस्येव स्त्रीमात्रार्था अत्र इति ईहामृगः । सह वीथ्यङ्गाहारादिभिर्वर्तते । दिव्येशो दिव्यनायकः । दृप्ता उद्धता मानबा मर्त्य पुरुषपात्राण्यत्र । एकाङ्कश्चतुरङ्को वेति । अत्र च वृत्तसंक्षेप-विस्तारानुरोधिनी कविस्वेच्छा प्रमाणम् । एकाङ्कत्वे एकाहनिर्वर्त्यमेव चरितम् । चतुरङ्कत्वे तु चतुर्दिननिर्वर्त्यम् । ख्याताख्यातं प्रसिद्धाप्रसिद्ध यदितिवृत्तं तद्वान् । प्रशंसायां च मतुस्तेन चतुरङ्कत्वे परस्पराङ्कसम्बद्धमितिवृत्तम न तु समवकारवदसम्बद्धम् ।
दिव्यस्त्रीहेतुः संग्रामो यत्र । अत्र हि दिव्यां नायकस्त्रियमनिच्छिन्ती प्रतिनायकोऽपहरति । ततस्तन्निमित्तको नायक-प्रतिनायकयोः संग्रामो निबन्धनीयः । निर्गतो विश्वासः परस्मिन् प्रत्ययो यस्मात् । आवेगानर्थपरस्परस्पर्धादयो विड्वरः, तय क्तः । स्त्रीनिमित्तमपहार-भेद-दण्डा यत्र । ते च यथासम्भवं स्त्रीविषया अन्यविषया वा। भेदः सामदानादिना विश्लेपोपपादम् । दण्डो बन्धादिः । प्रायोग्रहणं नायिका-न्यूनाधिकत्वख्यापनार्थम् ॥ [२५-२६] ६०-६१ ।।
दिव्य स्त्रीके कारण जिसमें संग्रामका प्रदर्शन किया जाय, परस्पर विश्वास रहित, परस्पर स्पर्धादि रूप [विड्वरों से युक्त, स्त्रियोंके अपहरण, भेद अथवा दण्डका प्रदर्शक, और प्रायः बारह नायकों वाला [रूपकभेद] ईहामृग होता है ॥] ५[-२६] ६१ ॥
जिसमें 'मृग'के समान केवल स्त्रीके लिए 'ईहा' अर्थात् चेष्टा होती है वह 'ईहामृग' [कहलाता] है [यह ईहामृग' शब्दका निर्वचन हुआ] । वह व्याहारादि रूप वीथ्यङ्गोंसे युक्त होता है। दिव्य नायक तथा दृत अर्थात् उद्धत मानवपात्र जिसमें हों। एक अथवा चार अङ्क वाला हो। इस विषयमें [अर्थात् अटोंकी संख्या विषपमें] कथाभागके संक्षेप अथवा विस्तारका अनुसरण करनेवाली कविको इच्छा ही प्रमाण है [कवि पाख्यान-वस्तुके संक्षेप विस्तारके अनुसार प्रङ्कोंको संख्या रखने में स्वतन्त्र है । एक अङ्क होनेपर एक दिनमें समाप्त होने वाला ही चरित्र रखना चाहिए। और चार अङ्क होनेपर चार दिनमें समाप्त होने वाली कथा होनी चाहिए। प्रसिद्ध अथवा अप्रसिद्ध जो कथा, उसपर प्राधारित । इसमें प्रशंसा अर्थ में मतुप् प्रत्यय है । इसलिए चार अङ्क होनेपर उनकी कथा परस्पर सम्बद्ध होनी चाहिए, समवकारके समान असम्बद्ध नहीं। ['समवकार' के लक्षण में उसके प्रोंको स्वयं 'निष्ठितार्था' कहा था । 'ईहामृग' के अङ्क उससे भित्र परस्पर सम्बद्ध होते हैं ।
दिव्य स्त्रीके कारण जिसमें संग्राम हो। इसमें नायककी [प्रतिनायकको न चाहने वाली दिव्य स्त्रीको प्रतिनायक [बलात्] अपहरण करता है। और उसके कारण नायक तथा प्रतिनायकमें संग्राम दिखलाया जाता है । जिसमें दूसरेपर विश्वास न रहा हो। पावेग, अनर्थ, परस्पर स्पर्धा आदि "बिड्वर कहलाते हैं। उनसे युक्त, स्त्रीके कारण जिसमें अपहरण, भेद और दण्ड होते हैं। वे यथासम्व स्त्री के विषय में अथवा अन्यके विषयमें [होते हैं।] भेद अर्थात् साम या दानादिके द्वारा फूट डालना। दण्ड अर्थात् बन्ध प्रादि । 'प्रायः' पदका ग्रहण [संख्याके] न्यूनत्व और अधिकत्वके सूचित करनेके लिए है। [२५-२६] ६०-६१ ॥
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