Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम्
२३२ ] [ का० ८५, सू० १३३ जातिमात्रोपजवनो द्विजन्मानः । श्रादिशब्दादन्यस्याप्येवंविधस्य दुष्टस्यैकस्यैव कस्यचिच्चेष्टितं वृत्तं, अश्लीलेन प्राम्येण जुगुप्सा- श्रमङ्गलहेतुना च, असभ्येन च व्रीड | कारिणा रहितम् । परिहासप्रधानवचनबहुलं च । एतदभिधायि रूपकमपि चोपचाराद् शुद्धं प्रहसनम् । द्वितीयवेश्या' दिचरितसाङ्कर्य रहितत्वादिति || [१६] ८४|| अथ सङ्कीर्णम्
[ सूत्र १३३ ] —— सङ्कीर्णमुद्धताकल्प-भाषाचार - परिच्छदम् ।
बहूनां बन्धकी- चेट-वेश्यादीनां विचेष्टितम् ॥ [२०] ८५ ॥
बहूनां चरितैः सङ्कीर्णत्वात् सङ्कीर्णम् । ऋत्युल्बणवेत्रव्यवहाराचारपरिजनम् । उद्धतत्वं च सतामनुचितत्वात् । बन्धकी स्वैरिणी, चेटो दासः, वेश्या पण्यस्त्री । आदिशब्दात् शम्भली-धूर्त - वृद्ध - षण्ढ - पाखण्डि विप्र-भुजग चार-भटादयो विकृतवेष. भाषाचारा गृह्यन्ते । विगर्हणीयं हास्यजनकं चेष्टितमनुष्ठानम् । एकस्य बन्धक्यादेः कस्यचित् द्वारेण यत्रानेक एवंविध एव प्रकर्षेण हस्यते तत् सङ्कीर्णचरितविषयत्वात् सङ्कीर्णम् । शुद्धे तु पाखण्ड्या देरेकस्यैव चरितं प्रहस्यते इति पूर्वस्माद् भेदः ।
airat fror पाखण्डी कहा है] विप्र [विद्यादि ब्राह्मणोचित गुणोंसे रहित होनेपर भी ] केवल जातिले जीविका - निर्वाह करने वाले द्विज । 'प्रादि' शब्दसे इस प्रकारके किसी अन्य एक ही दुष्टके जुगुप्सा और श्रमङ्गल जनक अश्लीलता अर्थात् ग्राम्यतासे और व्रीडाजनक असभ्यता [रूप अश्लीलता] से रहित व्यापारका वर्णन [ प्रहसन में होना चाहिए] । परिहास प्रधान वचन अधिक मात्रामें पाए जाते हैं। इस लिए इस [ इस परिहास प्रधानवचन ] को कहने वाला रूपक भी उपचारसे 'शुद्ध' 'प्रहसन' कहलाता है । वेश्यादि किसी द्वितीयके चरित का सङ्कर न होनेसे [ इस प्रकारका प्रहसन 'शुद्ध' कहलाता है |[१६] ८४॥
ta संकीर्ण प्रहसनका लक्षरण करते हैं—
[ सूत्र १३३ ] -- प्रत्यन्त उद्धत वेष, भाषा, प्राचार और परिजनोंसे युक्त, वेश्या तथा front [eयभिचारिणी स्त्री] श्रादि बहुतों के चरित्रसे युक्त [ प्रहसन ] सङ्कीर्ण [ प्रहसन कहलाता ] है । [२०] ८५ ।
बहुतों के चरितसे व्याप्त होनेके कारण [ इस प्रकारका प्रहसन ] संकीर्ण कहलाता है । [वेष, भाषा, प्राधार आदिका] उद्धतत्व [ उस प्रकारके वेष ग्रादिके] सज्जनोचित न होने के काररण [ कहा जाता ] है । बन्धकी अर्थात् स्वंरिणी, चेट अर्थात् दास, वेश्या, बाजारू स्त्री । 'आदि' शब्द से शम्भली [छिनाल ], धूर्त, वृद्ध, हिजड़ा, पाखण्डी, ब्राह्मण, भुजग, [ वेश्याओं के सेवक ], चार तथा भाट प्रादि विकृत वेष, भाषा और प्राचार वालोंका ग्रहण होता है । [आगे 'विचेष्टितं' शब्दका अर्थ करते हैं] विशेष रूपसे गर्हणीय श्रर्थात् हास्यजनक चेष्टितं अर्थात् व्यापार [ अनुष्ठान]। बन्धकी प्रादिमेंसे किसी एकके द्वारा जहाँ इस प्रकारके अन्य अनेक लोगोंका उपहास किया जाता है वह सङ्कीर्ण चरितोका विषय होनेसे सङ्की [ प्रहसन कहलाता ] है । शुद्ध [प्रहसन] में तो पाखण्डी आदि किसी एकके ही चरितका उपहास किया जाता है यह पिछले [ शुद्ध प्रहसन ] से [ संकीर्णरूप प्रहसनका ] भेद है ।
१. आसान ।
२. चारबुद्ध ।
३.
पिचारत ।
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