Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ७७-७८, सू० १२७ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२३ अथ कृत्यान्तरमुपदिशति[सूत्र १२७] -अत्र द्वादश नेतारः फलं तेषां पृथक् पृथक् ।
अंकास्त्रयः त्रिशृंगाराः त्रिकपटा त्रिविद्रवाः॥ [१२]७७ ॥ षड्-युग्मैकमुहूर्ताः स्युः निष्ठितार्थाः स्वकार्यतः।
महावाक्ये च सम्बद्धाः क्रमाद् द्वि-एकैकसन्धयः॥[१३]७८॥ 'अत्र' समवकारे नायका द्वादश । तत्र' प्रत्यकं द्वादश । यदि वा' प्रत्यकं नायक
'समककार को अगली कारिकामें 'त्रिशृंगार' तीन प्रकारके शृंगारोंसे युक्त कहा गया है। वैसे तो इसके प्रसंगमें शृंगारके सम्भोगशृंगार और विप्रलम्भशृंगार केवल ये दोनों ही भेद किए गए हैं। किन्तु यहाँ तीन प्रकारके शृंगाररमोंकी चर्चा की गई हैं। यहाँ शृंगार के ये तीन भेद फल की दृष्टि से किए गए हैं। (१) धर्मप्रधान शृंगार (२) अर्थप्रधान श्रृंगार और (३) कामप्रधान शृंगार । इस प्रकार शृंगारके तीन भेद करके 'समवकार'को 'त्रिशृंगारः' कहा गया है। शृंगारके ये तीनों भेद 'समवकार' के तीनों अंकोंमेंसे प्रत्येक अंकमें होने चाहिए। एक-एक अंक में एक-एक भेदका निबन्ध नहीं करना चाहिए यह बात भी आगे कहेंगे।
__ 'समवकार के तीनों अंकोंकी रचनाके विषयमें भी यह बात विशेष रूपसे निर्दिष्ट की गई है कि उनकी रचना इस प्रकारसे होनी चाहिए कि उनमें से प्रत्येक अक अपनेमें परिपूर्ण हो। उसको अपने अर्थ की पूर्णताके लिए दूसरे अंकके सहारेकी आवश्यकता न हो । इसके साथ ही अन्त में तीनों अंकोंकी एकवाक्यता या परस्पर सम्बन्ध भी प्रतीत हो सके। इसके लिए यह मार्ग बतलाया गया है कि प्रथम अंकके प्रारम्भमें भामुखके बाद तीनों अंकोंके अर्थके उपक्षेपक बीजका निबन्धन करना चाहिए। उसके बाद तीनों अंकोंको इस प्रकारसे बनावें कि उनका आख्यानवस्तु उसी अकमें समाप्त हो जाय । किन्तु अन्तमें तृतीय अंकमें फिर इस प्रकारकी रचना करनी चाहिए कि जिससे उसका आख्यानभाग अपने में परिपूर्ण हो किन्तु साय हो तीनों अंकों के अर्थका परस्पर सम्बन्ध बन सके। इन्हीं सब बातोंको ७७-७८ प्रगली दो कारिका प्रों में इस प्रकार कहा गया है
अब आगे [समवकारमें] किए जाने वाले अन्य कार्योंका उपदेश करते हैं
[सूत्र १२७ क]-इस [समवकार) में बारह नायक होते हैं। उनका फल अलगअलग होता है। तीन प्रकारके शृंगार, तीन प्रकारके कपट और तीन प्रकारके विद्रवसे युक्त तीन प्रङ्क होते हैं । [१२] ७७ ।।
[सूत्र १२७ ख]--[समवकारके तीनों अंक क्रमशः] छः मुहूर्त, दो मुहूर्त और एक मुहूर्त वाले [अर्थात् इतने समय में जिनका अभिनय हो सके इस प्रकारके] । स्वयंमें परिपूर्ण अर्थवाले, और महावाक्य [अर्थात स्वयंमें परिपूर्ण होनेपर. भी एकवाक्यतायुक्त अर्थात् परस्पर] में सम्बद्ध, तथा क्रमशः दो. एक और एक सन्धि वाले होने चाहिए [अर्थात् प्रथम अंकमें मुख प्रतिमुख रूप दो सन्धियां, द्वितीय अंकमें केवल एक गर्मसन्धि तथा तृतीय अंकमें केवल एक निर्वहण सन्धिकी रचना होनी चाहिए । [१३] ७८ ।
___ इस 'समयकार में बारह नायक होते हैं। उनमें से प्रत्येक अंकमें बारह [नायक] होते १. प्रत्येकं।
२. प्रत्येक
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