Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
View full book text
________________
का० ७६, सू० १२६ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२१ स्वल्पस्त्रीपात्रत्वं च कैशिकीरहितत्वात् । एतेन पुरुषपात्रबाहुल्यं लभ्यते । ‘ख्यातं प्रसिद्ध वस्तु नायकोपायलक्षणं यस्य । दीप्तानां वीर-रौद्रादीनां रसानामाश्रयः। अत-एवात्र गद्यं पद्यं चौजोगुणयुक्तम् । तथा दिव्यभूपतिवर्जितं सेनापत्यमात्यादिदीप्तरसनायकसम्पन्नः । केचिदस्य द्वादशनेतृकत्वमाम्नासिषुः । विशेषेण आ समन्ताद् युज्यन्ते कार्यार्थ संरभन्तेऽत्रेति 'व्यायोगः' । 'नायिकां विना' इत्यनेन नायिकायास्तदुचितस्य च दूत्यादेः परिजनस्य निषेधः । तेन नायकपरिच्छदभूताश्चेट्यादयो भवन्त्येव । अत्र च मन्त्रि-सेनापत्यादीनां युद्धादिबहुलं वृत्तं व्युत्पाद्यमिति ॥ [६-१०] ७४-७५ ॥
अथ क्रमप्राप्त समवकारं लक्षयति[सूत्र १२६] -विज्ञेयः समवकारः ख्याताओं निविमर्शकः।।
उदात्तदेव-दैत्येशो वीथ्यङ्गी वीर-रौद्रवान् ॥[११]७६॥ संगतैरवकीर्णैश्चाथैः त्रिवर्गोपायैः पूर्वप्रसिद्धैरेव क्रियते निबध्यते इति 'समवकारः ।' ख्यातार्थ इति बृहत्कथादिप्रसिद्धनायक-उपाय-त्रिवर्गफलो विमर्शसन्धिविवर्जितश्च ।
[व्यायोगमें] स्त्री पात्रोंको मल्पता कैशिको रहित होनेके कारण होती है। इससे पुरुष पात्रोंका प्राधिक्य सूचित होता है। जिसमें नायक तथा उपाय रूप 'वस्तु' ख्यात अर्थात् प्रसिद्ध हो। वीर रौद्र प्रादि वोप्त रसोंका प्राश्रय हो। इसीलिए इसमें गद्य और पद्य दोनों मोज गुणसे युक्त होने चाहिए। और [घ्यायोग] दिव्य [अर्थात् देवता रूप नायक और राजाओं [रूप नायकों] से भिन्न, दीप्त रसोंके अनुरूप सेनापति अमात्यादि नायकोंसे युक्त होना चाहिए। कोई लोग इसमें बारह प्रकारके नायक बतलाते हैं। [मागे 'व्यायोग' शव का निर्वचन कर उसका अवयवार्थ दिखलाते हैं जिसमें विशेष रूपसे 'पा समन्तात्' अर्थात् सब प्रोरसे युक्त होते हैं अर्थात् कार्यकेलिए प्रयत्न करते हैं। वह 'व्यायोग' [कहलाता] है [यह 'व्यायोग' पदका अवयवार्थ या निर्वचन है] । 'नायिकां विना' इस पदसे नायिका
और उसके योग्य दूती प्रादि परिजनोंका निषेध किया गया है। इसलिए नायकके सेवकादि के रूपमें चेटो प्रादि होती ही हैं [उनका निषेध नहीं समझना चाहिए। इस सबका फलितार्थ यह हुआ कि इसमें [अर्थात् व्यायोगमें] सेनापति अमात्य प्रादिका युद्ध-प्रधान चरित्र प्रदर्शित करना चाहिए ॥ [९-१०] ७४-७५ ।।
६. पष्ठ रूपकभेद 'समवकार' का निरूपण ['व्यायोग' नामक पञ्चम रूपकभेदके निरूपणके बाव] अब 'समवकार' [नामक षष्ठ रूपकभेद] का अवसर प्राप्त होनेसे उसका निरूपण करते हैं
[सूत्र १२६]---प्रसिद्ध पाख्यान वस्तुके आधारपर प्रथित, विमर्श-सन्धिसे रहित उदात्त प्रकृतिके देव-दैत्य प्रावि नायकों वाला, वीर या रौद्ररस प्रधान, वीथोके अंगोंसे युक्त [रूपकभेदको] 'समवकार' समझना चाहिए । [अर्थात् 'समवकार' के लक्षणमें इन सब बातोंका समावेश होता है] ॥ [११] ७६ ॥
[कारिकाको घ्याल्या प्रारम्भ करते हुए प्रन्थकार सबसे पहले 'समवकार' पदका निर्वचन कर उसका अवयवार्थ दिखलाते हैं । कहीं मिले हुए और कहीं बिखरे हुए त्रिवर्ग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org