Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का०७४-७५, सू० १२५ ] द्वितीयो विवेकः .
[ २१६ मस्य । दीप्तरस-नायकयुक्तत्वात् गर्भविमर्शविवर्जनम् । दीप्तरसो हि कालक्षेपासहिष्णुतया विनिपातानां शंकया च प्रारम्भ-प्रयत्नानन्तरं फलागम एवं यतते। ..
एवमीहामृगनायका' अपि । डिम-समवकारनायकास्तु बहुतरफलार्थित्वेन प्राप्त्याशायुक्ता दीप्तरसत्वेन च विनिपाताशङ्किनो निर्विमर्शकाः । भाण-प्रहसनयो
यकस्याधमत्वाद्, उत्सृष्टिकाङ्के शोकार्थत्वाद्, वीथ्यां चासहायत्वान्, सर्वेषामल्पवृत्तत्वाच्च प्रारम्भानन्तरं फलागमनिबन्धः । नाटकादिनायकस्य तु प्रेक्षापूर्वकारित्वेनार्तिसहत्वात् हित-बहुफलकर्तव्यारम्भित्वेन विनिपातप्रत्ययापाकरणाच्च सवोवस्थासम्भवेन पञ्चापि सन्धयो भवन्त्येव । वृत्तान्तका वर्णन होनेसे इसमें केवल एक ही अंक होता है। दीप्तरस [रौद्र वीर प्रादि रसप्रधान] नायकसे युक्त होनेके कारण ही गर्भ तथा अवमर्श सन्धियोंका निषेध किया गया है। दोप्तरस वाला [नायक] कालक्षेपको [अर्थात् कार्यसिद्धि में विलम्बको सहन नहीं कर सकता है [जल्दबाज होता है, और काम बिगड़ जानेके डरसे [कालक्षेप किए बिना प्रारम्भ और प्रयत्न रूप दो अवस्थानों के अनन्तर ही फलको प्राप्त करनेका यत्न करता है । [इसलिए इसमें गर्भ तथा विमर्श सन्धियोंका अवसर नहीं पाता है ।
सन्धि तथा अवस्थाओंकी न्यूनताका उपपादन इसी प्रकार 'ईहामृग' नामक रूपकभेद] के नायक भी [कालक्षेपको सहन नहीं कर सकते हैं इसलिए उसमें भी गर्भ और विमर्श सन्धियां नहीं होती हैं] । 'डिम' और 'समवकार' के नायक तो प्रचुर फलको कामना वाले होनेसे 'प्राप्त्याशा' [अवस्थावाली 'गर्भ सन्धि] से युक्त तो होते हैं किन्तु दीप्तरस [जल्दबाज] होनेसे विनिपात [कार्य विनाश] को शंकासे युक्त होनेके कारण विमर्श' रहित होते हैं । [इसलिए 'डिम', 'समवकार' प्रादि पकभेदों में 'गर्भसन्धि' होता है किन्तु विमर्शसन्धि' नहीं होता है । 'भारण' और 'प्रहसन' नामक रूपकभेदों के नायकोंके अधम होनेसे, और 'उत्सृष्टिकांक' में शोकका प्राधान्य होनेसे, तथा 'वीथी' प्रादि [भएकभेदोंमें नायकके] सहायक-विहीन होनेसे, और इन सभीके स्वल्पवृत्तवाला होनेसे प्रारम्भ [मवस्था] के बाद हो [बीच की यत्न, प्राप्त्याशा आदि तीन अवस्थानों को छोड़कर] फलप्राप्ति [रूप पञ्चमावस्था का वर्णन किया जाता है। नाटकादिके नायक तो विचारपूर्वक कार्य करने वाले, कष्टसहिष्णु, हितकर और बहुफल वाले कार्यके प्रारम्भ होनेसे, और विनिपातके कारणों [अर्थात् बाधाओं] के निराकरणमें समर्थ होनेसे [नाटकादिमें] सारी अवस्थानोंका सम्भव होनेसे पांचों सन्धि होते ही हैं।
इस प्रकार इस अनुच्छेदमें ग्रन्थकारने विभिन्न रूपक भेदोंके नायकोंकी मनोवृत्ति का विश्लेषण करते हुए दीप्त स्वभाव वाले नायक जल्दबाज होते हैं और कार्य में कोई विघ्न न पा जाय इस दृष्टि से तुरन्त ही फल प्राप्तिका यत्न करते हैं इसलिए उस प्रकारके नायकों से युक्त 'व्यायोग' आदि रूपक भेदोंमें एक, दो या तीन- अवस्थाओंको छोड़कर शेष दो तीन या चार अवस्थाओं और उसीके अनुसार दो, तीन या चार सन्धियोंका प्रयोग किया जाता है। नाटकादि प्रारम्भिक चार रूपक भेदों में ही पांचों अवस्थाओं तथा पांचों सन्धियों का उपयोग होता है। अन्तके शेष रूपक भेदों में सारे सन्धियों और सारी अवस्थानोंका १. नायिका।
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