Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ७६-८०, सू० १२८ ] द्वितीयो विवेकः
[ २२७ मिथ्याप्रकल्पितः सत्यानुकारी प्रपञ्चः कपटः । स च यत्र वञ्चनीयः सापराधः स वच्च्योत्थो वश्चकस्य वञ्चनेच्छायां सत्यां कपटः। वश्चकबुद्धयभावे सापराधेऽपि वञ्चये वञ्चनायाः सम्पत्ययोगात् । तेन वञ्च्य त्थः कपटों वश्चकाविनाभाव्येव । अत एव उभयजश्चतुर्थो न भवति ।
यत्र तु वञ्च्यापराधं विना वञ्चकबुद्ध यैव केवलया कपटो भवति स वञ्चकसम्भवी । यत्र तु द्वयोस्तुल्यफलाभिधानवतोः काकतालीयन्यायेन एक उपचीयते ऽपरोऽपचीयते सवञ्च्यापराधाभावेन वश्चकस्य च वञ्चनाबुद्ध ययोगेन च दैवसम्भवीति ।
विद्रवन्ति त्रस्यन्ति जना यस्मादिति विद्रवोऽनर्थः। 'त्रिः' इति प्रकारत्रययुक्तः । तत्र जीवोत्थो हस्त्यादिजः । अजीवोत्थः शस्त्रादिजः । जीवाजीवोत्थो नगरोपरोधजः । तत्र हस्त्यादेः शस्त्रादेश्च व्यापारादिति ।
अमीषु तु शृङ्गार-कपट-विद्रवाणां त्रिषु भेदेषु मध्ये एकैको भेदोऽङ्केषु पृथक पृथग निबन्धनीयः । तत्र प्रथमेऽङ्केऽन्यतमः कपट उपाये, विद्रवो व्यापत्तिसम्भावनायां, शृङ्गारः फलांशे । एवं द्वितीये तृतीये च । प्रथमे चाङ्क शृङ्गारः कामशृङ्गार एव । रञ्जनायां साधकतमस्य प्रथममुपादानात् । अत एव प्रहासोऽप्यत्र निबध्यते। ‘पद्य (१) जहाँ वञ्चनीय [पुरुष] अपराधी होता है और वञ्चकको धोखा देने की इच्छा होती है वहाँ वञ्च्योत्थ कपट कहलाता है। (२) वञ्च्य [पुरुष] के अपराधी होनेपर भी वञ्चक को उस प्रकारका ज्ञान न होनेपर वञ्चना बन ही नहीं सकती है इसलिए वञ्च्योत्थ कपट वञ्चक [में वञ्चन करनेकी बुद्धि का अविनाभावी है। इस कारण [वञ्च्य-वञ्चक दोनों से उत्पन्न चतुर्थ भेद नहीं होता हैं ।
यहाँ तक वञ्च्योत्थ कपटका वर्णन किया। अब आगे वञ्चकोत्थ कपटका वर्णन करते हैं---
__ जहाँ वञ्च्य [जिसको धोखा दिया जा रहा है उस] के अपराधके बिना ही केवल वंचकको [वञ्चना] बुद्धिसे ही कपट होता है वह वञ्चकोत्थ कपट कहलाता है। [प्रागें देवोत्थ कपटका लक्षण करते हैं ] जहाँ तुल्य फल और तुल्य कारण [मभिधान] होनेपर भी काकतालीय-न्यायसे अकस्मात् एककी वृद्धि हो जाती है और एकका ह्रास होता है वहाँ वञ्ज्य ह्रिास वाले] का अपराध न होने और वञ्चक [वृद्धि वाले] में वञ्चनाबुद्धि न होनेके कारण वह देवोत्थ कपट होता है।
[प्रागे कारिकामें प्राए हुए तीन प्रकारके विद्रवोंका वर्णन करते हैं । जिससे लोग विद्वत होते हैं अर्थात् भयभीत होते हैं उस अनर्थको 'विद्रव' कहते है । वह तीन प्रकारका होता है । [१ जीवोत्थ, २ अजीवोत्थ और ३ जीवाजीवोस्थ] । उनमेंसे हस्ती प्रादिके द्वारा उत्पन्न होने वाला [अनर्थ] जीवोत्थ है । शस्त्रादिसे होने वाला अजीवोत्थ है। और नगरोपरोध प्रादिसे उत्पन्न जीवाजीवोत्थ है। उस [नगरोपरोधजन्य अनर्थ] में हस्ती प्रादि और शस्त्रादि दोनोंका व्यापार होनेसे [उस प्रकारके अनर्थको जीवाजीवोत्थ अनर्थ कहा जाता है।
[अमीषु तु] इससे शृङ्गार, कपट और विद्रवोंके तीन-तीन भेवोंमेंसे एक-एक भेद पड़ों में अलग-अलग निबद्ध करना चाहिए । उनमेंसे प्रथम अङ्कमें [तीनों प्रकारके कपटोंमेसे] १. सम्भवायोगात्। २. उपाये। ३. तनस्य ।
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