Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम्
[ का० ७६, सू० १२६
'उदात्त' इति उदात्तत्वं महत्त्व - गाम्भीर्यादि । दैव-दैत्यानां हि धीरोद्धतत्वं मयपेक्षयैव, स्वजात्यपेक्षया तु धीरोदात्तत्वमपि ।
अत्र च तत्तदेव-दैत्यभक्तानां इष्टदेवतादि-कर्मप्रभावादिकीर्तनात् महती प्रीतिर्यात्राजागरादि-प्रेक्षाकरण- तदनुष्ठितोपायादिषु प्रवृत्तिश्च भवतीति देव-दैत्यौ नेतारौ । एवमन्येष्वपि मनुष्यनेतृकेषु वाच्यम् । वीथ्यङ्गानि व्याहारादीनि वक्ष्यमाणानि । तद्वान । वीर - रौद्रवान् इत्यतिशायने मतुः । तेनात्र' त्रिशृङ्गारत्वेऽपि वीर-रौद्रौ प्रधानम् । देव-दैत्यानामुद्धतत्वेन शृङ्गारस्य च्छायामात्रत्वेन निबन्धनादिति || [ ११ ] ७६ ॥
के पूर्व प्रसिद्ध उपायोंके द्वारा जिसको किया अर्थात् बनाया जाता है वह 'समवकार' कहलाता है । [श्रर्थात् समवकार शब्द सम श्रव उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से निष्पन्न होता है ] । 'ख्यातार्थ ' से [ यह अभिप्राय है कि] बृहत्कथा आदिमें प्रसिद्ध नायक, उपाय तथा त्रिवर्ग-रूप फलसे युक्त, तथा विमर्श-सन्धिसे रहित होना चाहिए ।
['उदात्तदेव-दैत्येशो' में] 'उदात्त' इससे महत्त्व गाम्भीर्यादिको उदात्तत्व समझना चाहिए। देवों और दैत्योंका धीरोद्धतत्व मनुष्यों की अपेक्षासे होता है। अपनी-अपनी जाति की अपेक्षासे तो [देवों तथा दैत्यों दोनोंमें] धीरोदात्तत्व भी होता है। यहां [संसार में या समवकारमें] उन-उन देवों तथा दैत्योंके भक्तोंमें अपने-अपने इष्टदेव प्रावि, उनके कर्म तथा प्रभाव प्रादिके कीर्तनसे प्रत्यन्त प्रानन्द [ प्रीति ] यात्रा, जागरण, [प्रेक्षाकरण अर्थात् ] दर्शन या झांकी बनाना श्रादि और उनके द्वारा किए गए उपायोंके अनुष्ठान श्रादिमें प्रवृत्ति होती है इसलिए देव और दैत्योंको यहाँ [अर्थात् समवकार में] नायक माना गया है । इस प्रकार मनुष्यों से भिन्न नायकों वाले अन्य रूपकभेदोंमेंके विषय में भी समझना चाहिए। ['वीथ्यङ्गवानू' इस पदमें निर्दिष्ट] 'वोथी' के 'व्याहारादि' अंग जो श्रागे कहे जाने वाले हैं उनसे युक्त [ होना चाहिए ] । 'वीर-रौद्रवान्' इसमें प्रतिशायन अर्थमें मतु प्रत्यय है । इसलिए [समयकारमें अगली ७७ वीं कारिकामें कहे हुए (१) धर्मफलक, (२) अर्थफलक, तथा ( ३ ) कामफलक ] तीनों प्रकारके शृङ्गार के होनेपर भो, वीर और रौद्र प्रधान [ रस] होते हैं । rate da और दैत्योंके उद्धत होनेके कारण उनके शृङ्गारका [ समवकार में] छायामात्र रूपसे ही वर्णन होता है । [ इसलिए शृङ्गाररस उसमें प्रधान नहीं होता है। वीर या रौद्ररस ही समवकार में प्रधान रस होते हैं ] ॥ [११] ७६ ॥
इस प्रकार 'समवकार' का सामान्य लक्षरण इस कारिका में दिया है । ७७ से ८० तक अगली चार कारिकानों में उसके सम्बन्ध में अन्य अनेक बातों का वर्णन करेंगे। इनमें 'समवकार' के द्वादश नायक और तीन अंक बतलाए गए हैं। द्वादश नायकोंकी संख्याका उपपादन दो प्रकार किया गया है । एक मत तो यह है कि समयकारके जो तीन अंक होते हैं इनमें से प्रत्येक में चार-चार नायक होते हैं। इस प्रकार तीनों अंकों में मिलाकर बारह नायक हो जाते हैं । प्रत्येक अंक में जो चार-चार नायक कहे गए हैं उनमें नायक - प्रतिनायक और उन दोनोंके सहायक ये चारों नायक माने जाते हैं। तभी चार नायक बनते हैं । दूसरे मत में 'समवकार' के प्रत्येक अंकमें बारह-बारह नायक होते हैं । यह बारह संख्या भी इसी प्रकार नायक प्रतिनायक और उनके अनुरूप सहायकों कों मिलाकर पूरी होगी ।
१. श्रङ्गारत्वेऽपि ।
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