Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ७, सू० १२२ । द्वितीयो विवेकः
[ २१५ प्रत्येक प्रसिद्धि-अप्रसिद्धियां चतुर्भेदत्वान्नाटिकापि चतुर्विधा। तत्र' 'देव्यप्रसिद्धा कन्या प्रसिद्धः इत्येकः । देव्यप्रसिद्धा कन्यकाप्यप्रसिद्वेति द्वितीयः । देवी प्रसिद्धा कन्या त्वप्रसिद्धति नृतीयः रवी प्रसिद्धा कन्यापि प्रसिद्धति चतुर्थः । उभयोः प्रसिद्धत्वेऽपि च कल्पितायत्वं नातिकात्राः । अन्यथा संविधानकरचनात् । नाटयति नर्तयति व्युत्पाद्यमनाभीति अचि, गैरादेराकृतिगगत्वाच्च डन्यां 'नाटी'। अल्पवृत्तत्वादल्पार्थे 'कपि' नाटिका इत्यपाति । श्रीप्रधानावात सुकुमारातिशयत्वाच्च स्त्रीलिंगसंज्ञानिर्देशः। एवं प्रकरण्यामपोति ।
अथ नाटिकागतं कर्तव्यमुपदिशति[सूत्र १२२]---अत्र मुख्याकृतो योगः पर्यन्ते नेतुरन्यथा ॥ [६] ७१॥
प्रेमाद्रो वर्ततेऽन्यस्यां नेता मुख्याभिशंकितः ।। संगीत प्रादि भेदोंके कारण अनेक प्रकारको होती है । विवाहिता [स्त्री] 'देवी' होती है। उन दोनोंकी प्रसिद्धि तथा अप्रसिद्धि के कारण नायिकाके चार भेद हो जानेसे नाटिका भी चार प्रकारको होती है । उनमेंसे (१) देवी अप्रसिद्ध हो और कन्या प्रसिद्ध हो यह पहला भेद हुना। (२) देवो अप्रसिद्ध हो और कन्या भी अप्रसिद्ध हो यह दूसरा भेद हुआ। (३) देवी प्रसिद्ध हो किन्तु कन्या अप्रसिद्ध हो यह तीसरा में हुआ। (४) देवी प्रसिद्ध हो और कन्या भी प्रसिद्ध हो यह चौथा भेद हुआ। [देवी और कन्या] दोनोंके प्रसिद्ध होनेपर भी [नाटिकामें उनके चरित्र प्रादि रूप] संविधानकको रचना प्रसिद्ध कथाकी अपेक्षा] कुछ अन्य ही प्रकार से कर देनेसे नाटिका 'कल्प्यार्था' हो जाती है। [आगे नाटिका शब्दको व्युत्पत्ति दिखलाते हैं। यह शब्द नट नर्तने धातुसे बना है। उसके अनुसार जो सामाजिकों [व्युत्पाद्यों के मनोंको नचाती है [आह्लादित करती है] इस विग्रहमें अच्-प्रत्यय करके [षिद्गौरादिभ्यश्च सूत्रमें] गौरादि गणके प्राकृति गण होनेसे डीप प्रत्यय होनेपर 'नाटी' [यह पद सिद्ध होता है । [यह नाटी पद नाटिकाका पर्यायवाचक शब्द हो है । नाटी पदसे अल्पार्थमें कप्-प्रत्यय करके 'नाटिका' पद बन जाता है। इस बातको आगे कहते हैं ] अल्प कथावस्तु होने के कारण अल्पार्थमें कपप्रत्यय होकर 'नाटिका' यह भी | रूप बनता है। नाटिका और नाटी पदोंमें जो स्त्रीलिंगका प्रयोग किया गया है उसका उपपादन करते हैं] स्त्री-प्रधान होनेके कारण और सौकुमार्यका अतिशय होनेके कारण स्त्रीलिंगको संज्ञाके द्वारा निर्देश किया गया है । इसी प्रकार 'प्रकरणी' [इस पद] में भी [स्त्रीलिंगके पदका प्रयोग समझ लेना चाहिए।
अब नाटिकामें [पाख्यान-वस्तुको रचना किस प्रकार करनी चाहिए इस] कर्तव्यका उपदेश करते हैं
[ सूत्र १२२ ]-उस [नाटिका] में, अन्त में [अर्थात् निर्वहण-सन्धिमें] नायकका मुख्य नायिका द्वारा अन्य [कन्या के साथ योग कराया जाना चाहिए। [और उसके पूर्व] नायक प्रेमासक्त होकर भी मुख्य नायिकासे डरता हुग्रा-सा अन्य [कन्याके साथ प्रणयव्यापार में प्रवृत्त होता है।
१. देख्यचसिप्र।
२. सुकुमारातिनयत्वाच्च ।
३. नायकागत प्र।
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