Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ४३, सू० ५१-५२ । प्रथमो विवेकः
[ १०६ (२) अथ परिकरः
[सूत्र ५१]---स्वल्पव्यासः परिक्रिया । उपक्षिप्तस्यार्थस्य सुष्ठु विशेषवचनैरल्पं विस्तारणं 'परिकरः'। यथा वेणीसंहारे भीमसेनः सहदेवमाह
प्रवृद्धं यद्वैरं मम खलु शिशोरेव कुरुभिः,. न तत्रार्या हेतुर्भवति न किरीटी न च युवाम् । जरासन्धस्योरःस्थलमिव विरूढं पुनरपि,
क्रुधा भीमः सन्धिं विघटयति यूयं घटयत ॥ इति । (३) अथ परिन्यासः
[सूत्र ५२]--विनिश्चयः परिन्यासः---
उपक्षिप्य, विस्तारितस्यार्थस्य विशेषेण निश्चयः सिद्धतया हृदयेऽवस्थापन परितो न्यसने 'परिन्यासः' । यथा राघवाभ्युदये
___ "मतिसागर:---देव मा शतिष्ठाः। प्रलयेऽपि हि किं विपरियन्ति मुनिभाषितानि ? बीजका प्राधान किया है। (२) परिकर
'परिकर [नामक मुखसन्धिके दूसरे प्रकको कहते हैं]--
[सूत्र ५१]--[बीज रूपमें उपक्षिप्त अर्थका] स्वल्प विस्तार 'परिफर' [नामक, मुखसन्धिका कहलाता है।
[बीज रूपमें उपक्षिप्त प्रर्थका [स्वल्पव्यासः अर्थात भली प्रकारसे विशेष वचनों द्वारा तनिक-सा विस्तार करना परिकर' [कहलाता है। जैसे वेणीसंहारमें भीमसेन सहदेव से कहते हैं...
'मेरा कौरयोंके साथ बचपनसे ही जो बैर बन गया है उसमें न प्रार्य [अर्थात् युधिष्ठिर कारण हैं, न अर्जुन और न तुम दोनों [अर्थात् नकुल और सहदेव ही कारण हैं । क्रोधके कारण भीमसेन [अर्थात् मैं स्वयं] जरासंधके उरःस्थलके समान परिपक्व संधिको भी अङ्ग करने जा रहा है तुम लोग उसे भले हो जोड़ते रहो।" (३) परिन्यास
सूत्र ५२]--[उपक्षिप्त प्रौर तनिक विस्तारित अर्थका] विशेष रूपसे निश्चय परिन कहलाता है।
बीज रूपमें उपक्षिप्त करके फिर [परिकर अङ्ग द्वारा] विस्फारित अर्थका विशेष रूपसे निश्चय अर्थात् सिद्ध मानकर हृदयमें धारण करना [परितः] पूर्ण रूपसे हृदयमें] स्थापित करना परितो न्यसनं परिग्यास: इस विग्रहके अनुसार] 'परिन्यास' [कहलाता) है। जैसे 'राधवाभ्युदय' में
मतिसागर--हे राजन् ! आप शङ्का न करें। क्या मुनियोंके वचन कभी प्रलयमें भी मिथ्या हो सकते हैं ?
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