Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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१६८ ]
नाट्यदर्पणम् [ का० ५६, सू०६८ "अहो शान्तोऽस्मि । भवतु अस्यास्तावद् गिरिनद्यास्तीरे स्थितस्तरंगवातं सेनिष्ये ।" इत्याद । अत्र कायिकः । तथा रघुविलासे सप्तमेऽङ्के रावण:-[सखेदम् ]
"हुं शक्रः स जितो जितो धृत-घृतः कैलासशैलोऽप्यरे ! क्रान्त क्रान्तमिदं जगत् 'प्रतिभुजग्रस्तासिकैर्बाहुभिः । । यारब्धा प्रति बन्धुबन्धनकथा लंकापतेर्जीवतः,
कर्णेषु प्रथते किमन्तमनया नीतं न विस्फूर्जितम् ॥" अत्र मानसः। तथा कृत्यारावणे लक्ष्मण:
"मार्गाः कण्टकिनः प्रतप्तसिकतापांशूकरा लंधिताः, क्रान्ताः शृङ्गवतां निकामपरुषाः स्थूलोपला भूमयः । भ्रान्तं दृप्तमृगेन्द्रनादजनितत्रासैः समं दन्तिभिः ?
पीतं च द्विपदानराजिकतुषव्यासंगतिक्तं पयः ।।" अत्रोभयजः। यद्यपि श्रमोद्वेगवितर्कादयो व्यभिचारिमध्ये लक्षयिष्यन्ते, तथापि रसविशेषपुष्टयर्थ सन्ध्यंगावसरे लक्ष्यन्ते । इति । (८) अथ विरोधः
[सूत्र ६८]-विरोधः प्रस्तुतज्यानिः ''अरे बड़ा थक गया हूँ। अच्छा चलो इस पहाड़ी नवीके किनारे बैठकर तरंगोंकी वायुका सेवन करूं।" इत्यादि । इसमें शारीरिक श्रम दिखलाया गया है ।
और रघुविलासके सप्तम अङ्क में रावण [खेदपूर्वक कहता है]--
"हो उस इन्द्रको तो बार-बार जीता था। अरे ! उस कैलास पर्वतको भी बार-बार उठाया हो था । और प्रत्येक भुजामें तलवार पकड़कर इस सारे जगत्को अनेक बार पाक्रान्त किया ही है किन्तु प्राज रावणके जीते-जी उसके बन्धनों को पकड़नेका जो यह प्रसंग प्रारम्भ हुआ है और कानों में पहुंच रहा है उसने क्या उस सारे दर्पका नाश नहीं कर दिया है।
इसमें [रावरणके मानसिक [खेदका वर्णन है । और कृत्यारावरणमें लक्ष्मण [कहते हैं]
“काँटो और जलती हुई बालू तथा धूल कूड़ा-करकटसे भरे हुए मार्गोमें चलना पड़ा। पहाड़ोंको अत्यन्त कठोर और बड़े-बड़े पत्थरोंसे भरी हुई भूमियोंको पार करना पड़ा। मत्त सिंहोंके गर्जनसे भयभीत हुए हाथियोंके साथ वनोंमें धूमना पड़ा और हाथियोंके मदके कलुषित सम्पर्कके कारण तिक्त पानी पीना पड़ा।" इसमें [शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकारका खेद पाया जाता है ।
यद्यपि श्रम-उद्वेग वितर्क आदिके लक्षण व्यभिचारिभावोंके प्रसंगमें किए जावेंगे फिर भी रसको विशेष पुष्टिके लिए सन्धियोंके अङ्गोंके प्रसंगमें यहां भी उनके लक्षण कर दिए गए हैं।
(८) अब विरोध [नामक विमर्शसन्धिके अष्टम अङ्गका लक्षण आदि करते हैं]
[सूत्र ६७]-प्रस्तुत अर्थको हानि 'विरोध' [कहलाता है। १. प्रतिभट।
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