Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
View full book text
________________
१६६ ]
नाट्यदर्पणम्
का० ६५, सू० ११६ निरीतयः प्रजाः सन्तु सन्तः सन्तु चिरायुपः ।
प्रथन्तां कवयः काव्यः सम्यग् नन्दन्तु मातरः।" यथा वा यादवाभ्युदये"युधिष्ठिरः-तथाप किमपि मो वयम--
कल्याणं भूर्भुवः स्वः प्रसरतु, विपदः प्रक्षयं यान्तु सर्वाः, सन्तः श्लाघां भजन्तामपचयमयतां दुर्मतिदुर्जनानाम् । धर्मः पुष्णातु वृद्धि सकल यदुमनः कैरवा रामचन्द्रः,
प्राप्य स्वातन्त्र्यलक्ष्मी मुदमथ वहतां शाश्वती यादवेन्द्रः।।" इयं चावश्यं निवन्धनीया । तथा इतिवृत्तान्तभूता चेयम् । तेनारयाः पृथगगणने चतुःपपिरपि अङ्गसंख्या भवति ।।
सन्धि निध-ग्रथन - पूर्वभाव - काव्यसंहार - प्रशस्तिभ्योऽन्यांगानां शेषसन्धिष्वपि कार्यवशतो निबन्धः । अत्रापि च स्वेच्छया नियोगः । एतानि निर्वहणसन्धेश्चतुर्दशाङ्गानि ।
सर्वसन्धीनां चांगानि इतिवृत्ताविच्छेदार्थमुपादीयन्ते । इतिवृत्तस्याविच्छेदश्व रसपुष्टयर्थः । विच्छे दे हि स्थाय्यादेस्त्रांट तत्वात कुतम्त्यो रसास्वादः ? ततो रसविधानकतानचेतसः कवेः प्रयत्नान्तरानपेक्षं यदंगमुज्जम्भते, तदेवोपनिबद्धं सहृदयानां
प्रजागरण [अतिवृष्टिरनावृष्टिः मूषकाः शलभाः शुकाः। प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः ॥ इन छः प्रकार को] ईतियोंसे रहित हो, सज्जन लोग चिरायु हों और कविगणोंके काव्योंकी अभिवृद्धि हो, तथा माताएँ पूर्णरूपसे प्रानन्दित हों। [यह जगतकी कल्याण कामना प्रशस्ति कहलाती है।"
अथवा जैसे यादवाभ्युदयमें-- "युधिष्ठिर-फिर भी हम कुछ कहते हैं कि
भूः भुवः स्वः [सब लोकों में कल्याणका प्रसार हो, सारी विपत्तियोंका विनाश हो, सज्जन पुरुषोंकी प्रशंसा हो, और दुर्जनोंकी दुर्मतिका ह्रास हो, धर्म वृद्धि को प्राप्त हो, सब यादवोंके मनोरूप करवोंको आह्लादित करनेवाले चन्द्र के समान यादवेन्द्र स्वातन्त्र्य लक्ष्मीको प्राप्त कर चिरस्थायी आनन्दको प्राप्त हों।"
. इस [प्रशस्ति नामक अङ्ग] को रचना अवश्य ही करनी चाहिए। और यह कथावस्तु के अन्तर्गत भी होती है इसलिए इसकी गणना न करनेपर [ पूर्वोक्त ६५ अङ्गोंके स्थानपर केवल ] अङ्गों की संख्या केवल चौंसठ रह जाती है ।
_ [निर्वहरणसंधिके १. संधि, २. निरोध, ३. ग्रथन, ४. पूर्वभाव, ५. काव्यसंहार और ६. प्रशस्ति, इन [छ ] अङ्गों को छोड़कर अन्य अङ्गोंका कार्यवशसे शेष संधियों में भी प्रयोग हो सकता है । और यहाँ [अर्थात् निर्वहण संधिमें भी अपनी इच्छाके अनुसार प्रयोग हो सकता है। ये चौदह निर्वहरणसंधिके अङ्ग हैं।
सभी संधियों के अङ्ग कथाभागके अविच्छेद के लिए ही निबद्ध किए जाते हैं। और कथावस्तुका अविच्छेद रसको परिपुष्टि के लिए होता है। [कथावस्तुका] विच्छेद हो जानेपर तो स्थायिभाव आदिका भी विच्छेद हो जानेसे रसका प्रास्वादन कैसे हो सकेगा? इसलिए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org