Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ६६-६७, सू० ११७ ] द्वितीयो विवेकः
[ २०७ . 'दिव्यानाश्रितम्' इति दिव्यैरनाश्रितम् । नाटके हि अंगत्वेन दिव्यो भवति । प्रकरणे तु तथाभावोऽपि नेष्टः । तस्य सुखबाहुल्येनाल्पदुःखत्वात् । अपरथा दिव्यत्वमेव हीयते ।
मध्यं सर्वोत्तम-हीनप्रकृत्ययोग्यं चेष्टितं विहार-व्याहार-वेष-सम्भोगादिको व्यापारो यत्र । तेन कल्पितवृत्तत्वेऽप्यस्य न राजोचितान्तःपुरादिसम्भोगः । कन्चुकिप्रभृतिभृत्यवर्गो वा । न चाधमपात्रसम्भोगादिर्वा निबन्धनीयः । तथा च वेश्यायां नायिकायां विनयरहितमपि चेष्टितं निबध्यते । यथा विशाखदेवकृते 'देवीचन्द्रगुप्ते' माधवसेनां समुद्दिश्य कुमारचन्द्रगुप्तग्योक्तिः
आनन्दाश्रुजलं सितोत्पलमचोराबध्नता नेत्रयोः, प्रत्यंगेपु वरानने पुलकिषु स्वेदं समातन्वता । कुर्वाणेन नितम्बयोरुपचयं सम्पूर्णयोरप्यसौ,
केनाप्यस्पृशताऽप्यधोनिवसनग्रन्थिस्तवोच्छ.वासितः ॥ इति ॥ अपेक्षासे नहीं। इसके लिए भी 'मन्द' शब्बसे 'गोत्र'को विशेषित किया है। अर्थात् 'मन्दगोत्राङ्गन' पदमें जो 'मन्द' पदको 'गोत्र' पदका विशेषण बनाया गया है उसका यह भी अभिप्राय है कि परिणक अमात्य विप्र प्रावि, राजाको अपेक्षासे मन्द गोत्र वाले ही होते हैं] । 'प्रकरण में नायक पौर [व्युत्पाद्यः अर्थात् जिनको शिक्षाके लिए 'प्रकरण' को रचना की गई है वे] सामाजिक दोनों मध्यम श्रेणीके ही होते हैं। __ भागे कारिकामें पाए हुए 'दिव्यानाश्रितं' पदकी व्याख्या करते हैं
"दिव्यानाश्रितम्' इसका यह अर्थ है कि विव्यपात्रोंसे रहित । 'नाटक में तो अंग रूपसे [अर्थात् नायकके सहायक रूपमें] दिव्य पात्र [उपस्थित होता है किन्तु 'प्रकरण में तो उस प्रकारको [अर्थात् नायकके अंगरूपमें] स्थिति भी इष्ट नहीं है। उस [दिव्यपात्र के सुखप्रधान होनेके और अल्पदुःखयुक्त होनेके कारण [क्लेशाज्य अर्थात् दुःखप्रधान 'प्रकरण में उनकी स्थिति संगत नहीं बनती है। अन्यथा [अर्थात् यदि दिव्य पात्रोंको सुखप्रधान और प्रल्प दुःखवाला न माना जाय तो उनकी दिव्यता ही नष्ट हो जावेगी।
मागे कारिका में पाए हुए 'मन्दचेष्टितम्' पदकी व्याख्या करते हैं
मध्य अर्थात् सर्वोत्तम अथवा सबसे निकृष्ट प्रकृतिके अयोग्य, चेष्टित अर्थात् विहार, [च्याहार अर्थात्] भाषरण, वेष और सम्भोगादि व्यापार जिसमें हो [वह मध्यचेष्टित 'प्रकरण' होता है। इसलिए पाख्यान-वस्तुके कल्पित होनेपर भी इसमें राजाओंके समान अन्तःपुर प्रादिका भोग, कञ्चुकी प्रभृति भृत्त्यवर्ग, अथवा अधमपात्रोंका-सा सम्भोगादिका वर्णन नहीं करना चाहिए । [अपितु सब कुछ मध्य स्थितिके अनुरूप ही होना चाहिए ] । इसीलिए वेश्या के नायिका होनेपर शिष्टता-रहित बातोंका भी वर्णन हो जाता है। जैसे विशाखदेवके बनाए हुए 'देवीचन्द्रगुप्त में माधवसेना [वेश्या को लक्ष्यमें रखकर कुमार चन्द्रगुतको [शिष्टतासे रहित निम्नलिखित उक्ति है -
शुभ्र-कमलके समान कान्ति वाली आँखोंमें, आनन्दाश्रुनोंको उत्पन्न करने वाले, और हे वराङ्गने ! तुम्हारे रोमाञ्च-युक्त सारे अंगों में स्वेदोत्पादन करदेनेवाले, एवं भरे हुए नितम्बोंकी वृद्धि करा देने वाले, किसी [प्रेमी ने स्पर्श किए बिना ही तुम्हारे नीचे पहननेके वस्त्रकी नारेकी गांठको खुलवा डाला है।
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