Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् [ का०६८, सू० ११६ एषु च भेदेषु नायकवृत्तानुरूप एव व्युत्पाद्यः। अत्र हि वणिगमात्यविप्राद्युचिता त्रिवर्गप्राप्तिः, तदर्जने स्थैर्य-धैर्यादि,व्यापदि मूढता, कुलस्त्रीवृत्तं, वेश्यासुसम्भोगचातुर्य, विट-दूतयोः स्वरूप, नायिकारागापरागलिगानि, हृदयग्रहणप्रयोगश्च, नायकयोरपरागकारणानि, चतुरोत्तममध्यमप्रकृतेनायकस्य, उत्तामध्यमप्रकृतेनायिकायाश्च स्वरूपम् , सामाद्युपायप्रयोगश्च व्युत्पाद्यानामुपदिश्यते । 'तस्मादिति' यतः शुद्धसंकीर्णाभेदत्रयरूपं सप्तभेद 'प्रकरणं', 'तस्मादेकविशतिधाप्यदः' एतत् 'प्रकरणम् । चतुर्दश शुद्धाः, सप्त संकीर्णाः प्रकरणभेदाः । नायिकायाः कल्पिताकल्पितत्वेनान्येऽपि भेदाः संभवन्ति । परमदृष्टत्वादुपेक्षिताः ॥ [३] ६८ ॥ वेश्या] दोनोंका भी अवधारण [अर्थात् गृहवामि केवल कुलजा ही, और उससे भिन्नमें केवल वेश्या ही नायिका हो सकती है इस प्रकारका नियम है। 'विट' अर्थात् गीत-नृत्य और वाद्यमें निपुण द्यूत, पान और वेश्यादिके सेवनमें तत्पर कला-कुशल मूलदेवादि जैसे पतियोंके नायक रूपमें विवक्षित होनेपर वेश्या और कुलजा दोनों अपने-अपने योग्य गृहस्थोचित पुरुषार्थकी [और उससे भिन्न पुरुषार्थको] अपेक्षासे [नायिका रूपमें] वेश्या और कुलजा दोनोंकी रचना करनी चाहिए। इस [विट रूप पति के धूर्त होनेके कारण हो वेश्या प्रधान है और कुलस्त्री तो पिता पितामह प्राविरे अनुरोषसे [रखी हुई होनेके कारण] गौण होती है। विटके पति रूपमें कथन करनेसे वरिणग प्राधिके अन्तर्गत होने पर भी विट नायक हो सकता है यह बात निकलती है। [अर्थात् विट 'प्रकरण' का नेता तो हो सकता है किन्तु वह पूर्वोक्त वरिणग् अमात्य या विप्रोंमेंसे ही कोई होगा। उनसे अलग नहीं] । वेश्या तथा कुलजा [दोनों प्रकारको नायिकाओं से संकीर्ण होनेके कारण यह भेद अशुद्ध भेद है। पहले दोनों [अर्थात् जिसमें केवल कुलजा अथवा केवल वेश्या ही नायिका हो बे] स्त्रीके संकर न होनेके कारण शुद्ध भेद हैं। शुद्ध भेदोंमें भी सहायकोंके सहित एक विट होता है। संकीर्णमें तो अनेक होते हैं। कोई लोग वरिपक् जिसका नायक है इस प्रकार के 'प्रकरण' को भी धूतोंसे व्याप्त होनेके कारण संकीर्ण मानते हैं । जैसे मृच्छकटिक मादि।
इन भेदोंमें नायकके वृसके अनुसार ही सामाजिक [व्युत्पाद्य] होते हैं। इसमें वरिणक, अमात्य, विप्र प्रादिके उचित [धर्म अर्थ काम रूप] १ त्रिवर्गको प्राप्ति, २ उसके प्राप्त करनेकेलिए अपेक्षित स्थिरता, धैर्य प्रावि, ३ मापत्तिकालमें मूढता, ४ कुल-स्त्रियोंका माचार, ५ वेश्यामोंके भली प्रकार सम्भोगका चातुर्य, ६ विट तथा विदूषकके स्वरूप ७ नायिकाके अनुराग तथा अपरागके लिंग, ६ हृदयको वशमें करनेके प्रयोग, १० नायकनायिका दोनों के परस्पर अपरागके कारण, ११ चतुर उत्तम मध्यम प्रकृतिके नायक, तथा उत्तम मध्यम प्रथम प्रकृतिकी नायिकाके स्वरूपोंका और १२ सामादि उपायोंके प्रयोग का उपदेश सामाजिकोंको दिया जाता है। 'तस्मात्' इससे [यह अभिप्राय है कि क्योंकि [पूर्वोक्त] सात भेजोंसे युक्त 'प्रकरण' के [एक केवल कुल स्त्रीके नायिका होनेपर और दूसरा केवल पण्यस्त्रीके नायिका होनेपर] दो शुद्ध और एक संकीर्ण [अर्थात् जिसमें दोनों प्रकारकी नायिकाएँ हों इस प्रकार तीन भेद हो सकते हैं । इसलिए यह 'प्रकरण' ७४३= २१ प्रकारका भी हो सकता है। उनमेंसे बौवह शुद्ध और सात संकीर्ण भेव होंगे। नायि
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