Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का०६६, सू० १२० ] द्वितीयो विवेकः
[ २११ अथाकल्प्यस्वरूपम्' निरूपयति[सूत्र ११६]-प्रत्राकल्प्य पुरा क्लुप्तं यद्वाऽनार्षमसद्गुणम् ।
अत्र 'प्रकरणे' अकल्प्यं अनुत्पाद्यं यत् तत् पूर्वकविकृतकाव्यादौ क्लुप्तं सत् समुद्रदत्ततच्चेष्टितादिवद् ग्राह्यम् । अथवा यदत्राकल्प्य तत् पूर्वर्षिप्रणीतशास्त्रव्यतिरिक्तबृहत्कथायुपनिबर्द्ध मूलदेव-तच्चरितादिवदुपादेयम् । 'सद्गुणम्' इति । यदत्राकल्प्यं पूर्वकविकल्पितं बृहत्कथाद्युपनिबद्धं वा चरित्रमपि तदसद्गुणं, पूर्वकविकाव्ये बृहत्कथादी चासन्तो गुणाः रसपुष्टिहेतवो भणितिविशेषादयो यत्र । यदप्यत्र प्राक्तनं निबद्धयते तत्रापि कविना रसपुष्टिहेतुरधिकावापो विधेय इत्यर्थः । अत एवार्षस्य वर्जनम् । तत्र ह्यभूतगुणावापे श्राद्धलोकस्य जुगुप्सा स्यादिति ॥
अपवादभूतं कृत्यमुक्त्वा उत्सर्गमतिदिशतिकानोंके कल्पित और अकल्पित होनेसे और भी अधिक भेद हो सकते हैं । परन्तु [लक्ष्यग्रन्थोंमें] न पाए जानेसे उनका यहाँ वर्णन नहीं किया है [उनकी उपेक्षा कर दी है] ॥ [३]६८ ॥
अब 'प्रकल्प्य' [अर्थात् जिसमें नायिकादिको कल्पना नहीं की जाती है उन] के स्वरूपको कहते हैं
[सूत्र ११६]—जिसकी कल्पना पहिले [अन्य काव्योंमें] की जा चुकी है अथवा अनार्ष अन्थों में वरिणत किन्तु [प्रसद्गुणम् अर्थात्]. नवीन गुणोंसे युक्त [नायकादि यहां 'प्रकरण' में] प्रकल्पित हो सकते हैं।
यहाँ अर्थात् 'प्रकरण' में जो प्रकल्पित अर्थात [कविके द्वारा स्वयं] अनुत्पादित होता है वह पूर्व कवियोंके बनाए काय?में कल्पित समुद्रवसादिके चरित्रके समान [यहाँ 'प्रकरण' में] ग्रहण किया जाता है। प्रथवा जो यहां अकल्पित होता है वह पूर्ववर्ती ऋषि-प्रणीत शास्त्रादिसे भिन्न गृहत्कथादि [प्रनार्ष ग्रन्यों] में उपनिबद्ध मूलदेवचरित्र प्राविके समान उपादेय होता है। [किन्तु विशेषता यह होती है कि वह 'असद्गुण' अर्थात् पूर्वकवि-कल्पित अथवा वृहत्कथादिमें वरिणत, जो चरित्र यहां [प्रकरण में] अकल्पित रूपमें लिया जाता है वह भी, उसमें जो गुण वहाँ [पूर्व कविके पात्रमें] नहीं होते हैं उस प्रकारके अपूर्व गुणों से युक्त होता है। अर्थात् पूर्व कवियोंके काव्योंमें और बृहत्कथादिमें जो गुण उसमें नहीं विसलाए गए हैं इस प्रकारके रसके परिपोषक अपूर्व वचन-विशेषादि रूप गुण जिसमें हों इस प्रकारका ['प्रकरण' होना चाहिए] इसमें जो कुछ पुरानी बात कही जाए उसमें भी रस की परिपुष्टिकेलिए कविको नई बात और बढ़ा देनी चाहिए। यह अभिप्राय है। इसीलिए यहां [प्रनार्ष पदसे] पार्ष [चरित्रों का निषेष किया गया है। क्योंकि उन [प्रार्ष चरित्रों में नवीन गुणोंका वर्णन होनेपर प्रक्षालु लोगोंको घृणा हो जाएगी।
[इस प्रकार 'प्रकरण' के लक्षणमें नाटकसे भिन्न अपवादभूत कार्योको कह कर अब [नाटकके समान ही जो-जो बातें 'प्रकरण में भी पाई जाती है उन] उत्सर्गभूत [सामान्य बातों का ['प्रकरण' में] प्रतिवेश करते हैं१. कल्पस्वक।
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