Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का०६८, सू० ११८ ] द्वितीयो विवेकः
[ २०६ अथ नायिकायोगद्वारेण भेदसंख्यानमप्याह[सूत्र ११८]-कुलस्त्रो गृहवार्तायां पण्यस्त्री तु विपर्यये ।
विटे पत्यौ द्वयं तस्मादेकत्रिशतिधाऽप्यदः ॥ ॥ [३]६८॥ गृहवार्तायां गार्हस्थ्योचितपुरुषार्थसाधके वृत्ते कुलजैव स्त्री नायिकात्वेन वणिगादीनां निबन्धनीया । यथा 'पुष्पदूतिके'। विपर्यये तु गाईस्थ्योचितपुरुषार्थावर्णने वेश्यैव नायिकात्वेन निबन्धनीया यथा 'तरङ्गदत्ते । उभययोगस्य विट एव विधानादनयोरप्यवधारणम् । विटे गीत-नृत्य-वाद्यविचक्षणे द्यूत-पान-वेश्यादिषु प्रसक्ते कलाकुशले मूलदेवादी पत्यो नायकत्वेन' विवक्षिते वेश्या कुलस्त्री चेति द्वयं तदुचितगाईस्थ्यपुरुषार्थापेक्षया निबन्धनीयम् । अस्य तु विटत्वादेव पण्यस्त्रोप्रधानम्। कुलस्त्री तु पितृ-पितामहाद्यनुरोधाद् गौणम् । विटस्य पतित्वानुवादाद् वणिगाद्यन्तभूतोऽपि 'प्रकरणे' विटो नेता लभ्यते । वेश्या-कुलजाभ्यां संकीर्णत्वादयं भेदोऽशुद्धः । पूर्वी तु शुद्धौ स्त्रीसंकराभावात् । शुद्धभेदयोरपि विटः ससहाय एकः । संकीर्णे तु बहवः । केचित् तु वणिग्नेतृकमपि धूर्तसंकुलत्वान्मृच्छकटिकादिकं संकीर्णं मन्यन्ते। भेव हो जाते हैं। उनमेंसे नायकके कल्पित, और शेष दोनों [अर्थात् फल और वस्तु के कल्पित न होनेपर एक भेद होता है। इसी प्रकार फल और वस्तुमें भी [एकके कल्पित और शेष दोके कल्पित न होनेपर एक-एक भेद होता है । इस प्रकार एकको कल्पनाके विधानसे तीन भेव बनते हैं। इसी प्रकार (१) नायक और फल, (२) नायक और वस्तु तथा (३) फल मौर वस्तु इन दो-दो के कल्पित, और शेष एकके भकल्पित होनेपर दो-दो वाले तीन भेद होते हैं। नायक, फल और वस्तु तीनोंके एक साथ कल्पित होनेपर एक भेद बनता है। इस प्रकार सबको मिलाकर 'प्रकरण' के सात भेद हो जाते हैं। [१-२] ६६-६७ ॥ . इस प्रकार ६७ वीं कारिकाके उत्तरार्द्ध में नायक मादिके कल्पित होनेके माधारपर 'प्रकरण' के सात भेद दिखलाए हैं। मागे कुलस्त्री, वेश्या तथा दोनों प्रकारकी नायिकानों के वरिणत होनेपर इन सातों प्रकारके 'प्रकरणों के तीन-तीन भेद और भी बन सकते हैं। इसलिए 'प्रकरण' के २१ भेद हो जाते हैं। इन भेदोंको अगली कारिकामें दिखलाते हैं
अब नायिकाके भेदोंके द्वारा [प्रकरण' के भेदोंको संख्याको भी कहते हैं
[सूत्र ११८]-गृहस्थोचित वृत्तमें कुलस्त्री, इसके विपरीत वृत्तमें वेश्या और बिट [धूतं] के, पति [रूपमें वरिणत होनेपर [कुलस्त्री और वेश्या] दोनों [नायिकाएं हो सकती हैं। इसलिए ['प्रकरण' के पूर्वोक्त सात भेदों से प्रत्येकके तीन-तीन भेव हो जानेसे सब मिलकर यह इक्कीस प्रकारका भी हो सकता है [३] ६८ ।
गृहवार्ता अर्थात् गृहस्थोचित पुरुषार्थ के साधक वृत [कथा] में परिणम् प्रादि [नायकों की कुलजा स्त्री ही नायिका रूपमें रखनी चाहिए। जैसे 'पुष्पतिक' में। इसके विपरीत अर्थात् गृहस्थ धर्मके उचित पुरुषार्थका वर्णन न होनेपर वेश्याको ही नायिका रूपमें प्रस्तुत करना चाहिए। जैसे 'तरंगवत' में। [कुलजा मोर पेश्या] बोनोंके योग का विटके साथ ही [अर्थात् विटके पति होनेपर ही विधान होनेसे इन [कुलबा तपा १. विवक्षते।
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