Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ६५, सू० ११५ ) प्रथमो विवेकः
[ १९५ ईशस्य देवीप्रसादम्य न तावदधिक सदृशं किमपि भविष्यात यद्वरिष्यामि। तथापि को देव्याः प्रसादानां पर्याप्तकामः ? तत् प्रियदर्शनां मे प्रसादीकरोतु देवी। इति संस्कृतम् ] । राज्ञी-बाढं पडिवादिदा।
बाढ प्रतिपादिता । इति संस्कृतम्] । नायिका-महंतो पसादो। [स्वगतम् ] संपदं पमज्जिय भुजि सभावं पियदंसणाए इच्छा-गुरूव-नेहस्स अणुसरिसं ववहरिरसं ।
[महान् प्रसादः । साम्प्रतं प्रमाय॑ भुजिष्यभावं प्रियदर्शनाया इच्छा-गौरवस्नेहस्यानुसदृशं व्यवहरिष्ये । इति संस्कृतम् ] ]
अत्र वरस्य प्रतिग्रहः । इति ।
इदमङ्गमवश्यं निबन्धनीय प्रशस्तिनान्तरीयकत्वादिति । (१४) अथ प्रशस्ति:--
[सूत्र ११६]-प्रशस्तिः शुभशंसना ॥६५॥ जगतः कल्याणशंसना प्रशस्तिः। तच नायकस्तदात्यो वा पठति । यथा कृत्यारावण--- "रामः-तथापीदमस्तु
यथायं मम सम्पूर्णश्चिन्तितार्थो मनोरथः । एवमभ्यागतो रङ्गः सर्वपापैः प्रमुच्यताम् ॥
अपि च-- नायिका- इस प्रकारके देवीके प्रसादसे अधिक और कुछ नहीं हो सकता है जिसका मैं सरण करू । फिर भी देवीके प्रसादसे किसको तृप्ति होती है इसलिए [मैं यह वर मांगती हूँ कि देवी प्रियदर्शनाको मुझे प्रसाद रूपमें प्रदान करें।
रानी-अच्छा दे दी।
नायिका-बड़ी कृपा है । [अपने मनमें] अब प्रियदर्शनाके दासीभावको दूर करके उसके साथ उसकी इच्छा, गौरव और स्नेहके अनुरूप [इसके साथ] व्यवहार करूंगी।"
इसमें वरको स्वीकार किया गया है।
इस [काव्यसंहार रूप] अङ्गको [अगले] प्रशस्ति नामक प्रङ्ग] से अविनाभूत होनेके कारण अवश्य ग्रथित करना चाहिए।
(१४) अब 'प्रशस्ति' [नामक निर्वहरणसंधिके चौदहवें प्रङ्गका लक्षण प्रादि करते हैं] - [सूत्र ११६]--कल्याणको कामना प्रशस्ति [कहलाती है ।
संसारके कल्याणको कामना 'प्रशस्ति' [कहलाती है। उसको नायक प्रथवा कोई अन्य [पात्र] पढ़ता है । जैसे कृत्यारावरणमें--
"राम-फिर भी येह हो कि
जिस प्रकार विचारित अर्थ के विषय में मेरा यह मनोरथ पूर्ण हुमा इसी प्रकार [नाट्यावलोकनार्थ] पाए हुए सब सामाजिक सब प्रकारके दुःखों [पापैः] से मुक्त हो जावे ।
पौर भी
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