Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का०६४, सू० १८६ ] प्रथमो विवेकः
[ १८३ एके तु 'परिभाषा मिथो जल्प.' इति पठन्ति ।
अत्रापीदमेवोदाहरणमिति ॥६॥ (5) अथोपारित:
__ [सूत्र १०६]-सेवोपास्तिः । सेवा पर-प्रसत्तिहेतुर्व्यापारः । यथा वेणीसंहारे
"भीमः-[द्रौपदीमपुसृत्य] देवि पाञ्चालतनये ! दिष्ट चा वर्धसे रिपुकुलक्षयेण।"
अनेन, भीमेन द्रौपद्याः प्रसादितत्वात् पर्युपास्तिः । यथा वा रघुविलासे"रामः सविनयं सीतां प्रति]--
प्राणान यद्विरहेऽप्यहं विधृतवान् देवि ! प्रियप्राणितस्तत् क्षन्तव्यमशेषमेष समयः स्मेराक्षि ! नैव क्रुधाम् । सौमित्रेः कपिभर्तुरस्य च मनःप्रीत्यै तदेहि प्रिये,
हस्तिस्कन्धमलं कुरुष्व ननु ते पूर्ण प्रतिज्ञावधिः।" ___ अत्र रामस्य सीताप्रसत्तिहेतुापार:।
अन्ये त्वस्य स्थाने प्रियहिताचरणजनितां प्रसत्ति प्रसाद मङ्गमाहुः । यथा तापस वत्सराजे गृहीतपन्चालाधिपति रुमण्वन्तं यौगन्धरायणं च प्रति--- नल तथा रामचंद्र तीनोंकी उक्तियाँ] उदाहरण हैं । ६३ ।
(६). अब 'उपास्ति' [नामक निर्वहरणसंधिके षष्ठ अङ्गका लक्षण प्रादि कहते हैं[सूत्र १०६]-सेवा [का ही नाम] 'उपास्ति' [उपासना] है।
सेवा अर्थात् दूसरेको प्रसन्न करनेवाला व्यापार [उपासना उपास्ति कहलाता है जैसे वेणीसंहारमें
''भीम---[द्रौपदीके पास जाकर] हे देवि पाञ्चालतनये ! सौभाग्यसे शत्रुकुलके नाशसे तुम्हारी वृद्धि हो रही है।"
इसके द्वारा भीमके द्रौपदीको प्रसन्न करनेसे यह पर्युपासन [का उदाहरण] है । प्रथवा जैसे रघुविलासमें"राम [विनयपूर्वक सीताके प्रति]
हे देवि ! तुम्हारे विरहमें भी अपने जीवनका प्रेमी मैं जो प्रारण धारण किए रहा उस सबको क्षमा करो। हे स्मेराक्षि ! यह समय क्रोधका नहीं है । लक्ष्मण और इस वानरराज [सुग्रीव के मनको प्रसन्न करनेके लिए प्रानो हाथोकी पीठको अलंकृत करो। तुम्हारी प्रतिज्ञा को अवधि समाप्त हो चुकी है।"
यहाँ सीताको प्रसन्न करनेवाला रामका व्यापार है [अतः यह भी 'उपास्ति' नामक अङ्गका उदाहरण है।
___ अन्य लोग तो इस [उपास्ति] के स्थानपर प्रिय तथा हितके किए जानेके कारण [होनेवाली मनको] प्रसन्नता रूप 'प्रसाद' को अङ्ग कहते हैं । जैसे तापसवत्सराजमें पाञ्चालाधिपतिके पकड़ लिए जानेके बाद रुमण्वान और यौगंधरायणके प्रति --
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