Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् [ का० ६३, सू० १०८ (५) अथ परिभाषा
[सूत्र १०८] - परिभाषा स्वनिन्दनम् ॥ ६३ ॥ . स्वापराधोघट्टनं परिभाषा । यथा तापसवत्सराजचरिते वासवदत्तां प्रति"राजा-[ सास्रम् ] देवि ! किं ब्रवीषि
यथा तथा धृतप्राणं निःस्नेहं निरपत्रपम् ।
आनन्दामृतवर्षिण्या दृष्टयाप्यनुगृहाण माम् ।। यथा वा नलविलासे दमयन्ती प्रति नलः
"न प्रेम निहितं चित्त न चाचारः सतां स्मृतः ।
त्यजता त्वां वने देवि ! मया दारुणमाहितम् ।।" यथा वा राघवाभ्युदये रामः [स्वगतम् ]
"वैदेही हृतवांस्तदेष महत: संख्ये विषय क्लमान , चक्रोत्पाटितकन्धरो दशमुखः कीनाशदासीकृतः। प्राणान् यद्विरहेऽप्यहं विधृतवांस्तेन त्रपापांसुरं,
वक्त्रं दर्शयितु तथापि न पुरस्तस्या विलक्षः क्षमः ।।" एषु वत्सराज-नल-रामचन्द्राणां स्वापराधोद्घट्टनमिति । एतदङ्ग रजकत्वा. दत्रावश्यं निबन्धनीयम् ।
(५) अब 'परिभाषण' [नामक निर्वहरण संधिके पञ्चम अङ्गका लक्षण प्राविकहते हैं]--- अपनी निन्दा करना 'परिभाषण' [कहलाता है । ६३ ।
[सूत्र १०८]-अपने अपराधको प्रकाशित करना 'परिभाषा' [प्रङ्ग कहलाता है। जैसे तापसवत्सराज चरितमें वासवदत्ताके प्रति [राजा उदयन कहते हैं]
"राजा-रोते हुए] देवि ? क्या कहती हो
स्नेहरहित और निर्लज्ज, जैसे-तैसे अपने प्राण धारण करनेवाले मुझको तुम अपनी मानंदामृतको बरसानेवाली दृष्टिसे अनुगृहीत करो।"
अथवा जैसे नलविलासमें नल दमयंतीके प्रति [कहते हैं]
"मैंने [तुमको वनमें सोता छोड़कर जाते समय न तुम्हारे प्रेमका मनमें विचार किया पोर न सज्जन-पुरुषोंके प्राचारका। हे देवि ! तुमको वनमें छोड़कर मैंने अत्यंत निष्ठुरताका कार्य किया था।"
अथवा जैसे रामाभ्युदयमें राम [स्वगत कहते हैं] --
"इस [रावण ने वैदेहीका अपहरण किया था इसलिए युद्धमें नाना प्रकार के क्लेशोंको उठाकर चक्रसे गले काटकर उस रावणको यमराजका दास बना दिया। किन्तु तुम्हारे वियोग में भी जो मैं प्राण धारण किए रहा इस लज्जाके कारण मैं अपने मलिन मुखको तुम्हारे सामने दिखला नहीं पाता हूँ।"
इन [तीनों उदाहरणों] में [क्रमशः] वत्सराज, नल और रामचंद्र अपने-अपने अपराधों को प्रकाशित करते हैं [इसलिए ये 'परिभाषण' नामक प्रङ्गका उदाहरण हैं।
मनोरअंक होने के कारण इस अङ्गकी रचना अवश्य ही करनी चाहिए। कुछ लोग 'प्रापसमें बातचीतको परिभाषरण' कहते हैं। इसमें भी यही [वत्सराज,
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