Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम्
[ का० ५६, सू० १८
"येनावृत्य मुखानि साम पठतामत्यन्तमायासितं, बाल्याद् येन हृताक्षसूत्रवलयप्रत्यर्पणैः क्रीडितम् । युष्माकं हृदयं स एष विशिखैरापूरितांसस्थलो, मूर्च्छाघोरतमः प्रवेशविवशो बध्वा लवो नीयते ॥” इति । बधाध्यवसायस्तु मृच्छकटिकायां चारुदत्तविषयः । तथा रत्नावल्याम्"पुनर्वासवदत्ता - श्रज्जउत्त ! गंखु अत्तणो कारणा भणामि एसा मए निग्विणश्रियाए संपदा सागरिया विवज्जदि । इति ।
[ श्रार्यपुत्र ! ननु खल्वात्मनः कारणात् भरणाम्येषा मम निघृ हृदययाः सम्पत् सागरिका विपद्यते । इति संस्कृतम् ] ।”
अत्र सागरिकाया बन्ध-वधाग्निभिर्विद्रवः । तथा वेणीसंहारे
१७० ]
"युधिष्ठिरः - कः कोऽत्र । सनिषङ्गः धनुरुपनीयताम् । कथं न कश्चित् परिजनः । भवतु वा, बाहुयुद्धसम्भावनाविहस्तमेनं दुरात्मानं गाढमालिङ्गन्य ज्वलितंज्वलननमभिपतामि ।" इति ।
अत्र सम्भ्रमात्मको विद्रवः । इति ।
शौर्य-कुल- विद्या-रूप-सौभाग्यादिसम्भवमात्मविकत्थनं तु विचलनम् । यथा वेणीसंहारे पचमेऽङ्के
"तात ! अम्ब !
-
"जिस [व] ने सामवेदका पाठ करते हुए [ब्रह्मचारियोंका ] मुख बन्द करके उनको बड़ा संग किया। जिसने बचपनके काररण उनके प्रक्षसूत्र और वलय प्राविको छीनकर फिर बेकर क्रीड़ाएँ कीं, तुम्हारे हृदयके समान [ अत्यन्त प्रिय] बालोंसे जिसका कन्धा भरा हुआ है और मूर्च्छासे गहन अन्धकारमें पहुँच जानेके कारण विवश उस लवको [तुम्हारे सैनिक ] बांधकर लिए जा रहे हैं ।"
[ यह बन्धनाध्यवसायका उदाहरण हैं] बषके प्रध्यवसायका [ उदाहरण] जैसे 'मृच्छकटिक' में चारुदत्त के विषयमें [पाया जाता है] । और जैसे 'रत्नावली' में
[ वासवदत्ता फिर कहती है ।] श्रार्यपुत्र ! मैं अपने कारण ही कहती हूँ कि मुझ निर्दयाकी सम्पत्ति सागरिका [इस श्रग्निमें जलकर ] मरी जा रही है।
इसमें सागरिका बन्ध तथा बध श्रादि [दोनों] के होनेके कारण 'विद्रव' [श्रङ्ग पाया जाता ] है । और 'वैरणीसंहार' में-
"युधिष्ठिर -- अरे ! यहाँ कौन है ? तूणीर सहित धनुष लानो । श्ररे, कोई नौकर नहीं जान पड़ता है। अच्छा रहने दो। बाहुयुद्धकी सम्भावनाके कारण [स्त्रसे रहित] खाली हाथ वाले इसको जोरसे पकड़कर प्रज्वलित अग्निमें कूदा पड़ता हूँ ।"
इसमें सम्भ्रम रूप 'विद्रव' है ।
शौर्य, कुल, विद्या रूप, सौन्दर्य श्रादिके कारण अपनी प्रशंसा करना 'विचलन'
[ कहलाता ] है । जैसे 'वेणीसंहार' के पञ्चम् प्रङ्क
"हे तात ! हे मातः !
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