Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का०५४, सू० ८५ ] प्रथमो विवेकः
[ १५५ ___ अत्र रावणस्य शंका।
ये त्वत्र शंका त्रासरूपं ससम्भ्रममंगमाहुः तद् विद्रव-उद्वेगाभ्यां गतामिति । (8) अथाक्षेपः
[सूत्र ८५]--आक्षेपो बीजप्रकाशनम् ॥ ५४ ।। प्राप्त्याशावस्थानिबद्धस्य बीजस्य मुखकार्योपायस्य प्रकाशन प्रकर्षण! विर्भानं आक्षेपः। यथा वेणीसंहारे सूतः
"दत्त्वा द्रोणेन पार्थादभयमपि न संरक्षित: सिन्धुराज, क्रूरंदुःशासनेऽस्मिन इंरिण इव कृतं भीमसेनेन कर्म । दुःसाध्यामप्यरीणां लघुमिव समरे पूरयित्वा प्रतिज्ञां,
नाहं मन्ये सकामं कुरुकुल विमुखं देवमेतावतापि ॥" अत्र पाण्डवान राज्यप्राप्तिरूपकार्योपायस्योन्मुख्याविष्कर गां कृतम । यहाँ रावरणको [भयको शंका है [इसलिए यह निद्रव' नामक अङ्गका उदाहरण है।
जो लोग यहाँ त्रास रूप शंकाको संसम्भ्रम गर्भसन्धिको १४वां] अङ्ग कहते हैं [वह उचित नहीं है क्योंकि वह 'विद्व' प्रभवा 'उद्वेग' के ही अन्तर्गत हो जाता है।
इसका अभिप्राय यह है कि किहीं प्राचार्योने मर्भसन्धिके इन तेरह अङ्गों के प्रतिरिक्त 'सम्भ्रम' को भी गर्भसन्धिका चोव्हवाँ अंग माना है। किन्तु प्रत्यकार उनके इस मतसे सहमत नहीं है । 'सम्भ्रम' को गर्भसन्धिका प्रग मानने वालोंने उसका लक्षरंग, त्रास रूप शंका को 'सम्भ्रम' कहते हैं इस प्रकार किया है.। ग्रन्थकारका कहना यह है कि यदि त्रास अर्थात भयको 'सम्भ्रम' माना जाय तो वह तो 'उद्वेगो भी: इस लक्षण वाले उद्वेगके अन्तर्गत हो जाता है। और यदि शंकाको 'ससम्भ्रम' कहा जाय तो वह 'विद्रवः शंका' इस लक्षण वाले 'विद्रव' अङ्गके अन्तर्गत हो जाता है । इन दोनोंसे. अतिरिल उसको अलग कोई अस्तित्व नहीं बनता है । अतः सम्भ्रम' को अलग चौदहवाँ अङ्ग मानना उचित नहीं है। (E) आक्षेप--
अव 'प्राक्षेप [नामक गर्भसन्धिके नवम अङ्गके लक्षण आदि कहते हैं]----- [सूत्र ८५]---बीजके प्रकाशन करने को 'आक्षेप' बहते हैं । ५४ ।
[गर्भसन्धिके अन्तर्गत प्राप्त्याशाको अवस्थामें निबद्ध, मुख्यकार्यके उपायभूत बीजका प्रकाशन अर्थात् प्रकरण अच्छी. प्रकारसे प्राविर्भावन 'प्राक्षेप' [कहलाता है। जैसे वेणीसंहार में सूत कहता है]--
द्रोणाचार्यने अभय-दान करके भी अर्जुनसे सिन्धुराज [जयद्रथ] की रक्षा नहीं कर पाई। इस दु.शासनके विषय में भी [सिंहसदृश] भीमसेनने हरिणके समान क्रूर कर्म कर डाला [अर्थात् सिंह जिस प्रकार हरिणको अनायास ही मार डालता है इसी प्रकार भीमसेनने दुःशासनको समाप्त कर दिया] । इस प्रकार शत्रुओं [अर्थात् पाण्डवों] की दुःसाध्ये प्रतिज्ञाओं को भी युद्धभूमि में झटपट पूर्ण करके भी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि कुरुकुलका विरोधी देव अभी पूर्ण मनोरथ नहीं हो पाया है [अभी वह कुछ और भी खेल दिखलावेगा] ।
यहाँ पाण्डवोंके राज्य-प्राप्ति रूप कार्यके उपाय [शत्रुके प्रमुख पुरुषोंके वध का मुख्य रूपसे प्रकाशन [ किया गया ] है [ अतः यह प्रक्षेप' नामक नवम अङ्गका उदाहरण है ।
गनी..
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