Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
View full book text
________________
का० ५८, सू० ६४ ] प्रथमो विवेकः
[ १६५ अत्र स्वदोषोद्घट्टनम् । तथा रघुविलासे सप्तमेऽङ्क रावणं प्रति मारीचः
"खण्डय न्यायतेजोभिः शूर ! कोलीनदुर्दिनम् ।
अनीति-धूमरी हन्ति यशश्चूताग्रमजरीः॥" अत्र परदोषोद्घट्टनमिति । (५) अथ छादनम्
[सूत्र ६५]--छादनं मन्युमार्जनम् ॥५॥ मन्युरपमानो येन माय॑ते तत् छादनम् । यथा रत्नावल्याम
"सागरिका-दिठ्ठया पज्जलिदो भयवं हुयासण अज्ज करिस्सदि मे सयलदुक्खवसाणं त्ति।
[दिष्ट्या प्रज्वलितो भगवान हुताशनोऽद्य करिष्यति मे सकलदुःखावसानमिति । इति संस्कृतम्]"
__ अन्ये तु --कार्यार्थमसह्यस्याप्यर्थस्य सहनं छादनमामनन्ति । यथा श्रीशुक्तिवासकुमारविरचिते अनंगसेना-हरिनन्दिनि प्रकरणे नवमेऽङ्के, राजपुत्रचन्द्रकेतुना दत्तं कर्णालंकारयुगलं नायिकया माधव्या नायकस्य प्रेषितम् । नायकेन हरिनन्दिना पुष्पलकनामानं ब्राह्मणं राजबन्धनान्मोर्चायतु तन्मात्रेऽतिसृष्टम् ।
___ इसमें [वक्ताने] अपने दोषका [अर्थात् निन्दा करते हुए भी पानेका] उद्घाटन किया है। ___ और रघुविलासके सातवें अङ्क में रावणके प्रति मारीच [कहता है]
"हे शूर [रावरण] ! न्यायके तेजोंके द्वारा अयश रूपी दुदिन [मेघाच्छन्नं तु दुर्दिनम्] का नाश करो [अर्थात् सीताको मुक्त करके अपने न्यायका परिचय देकर तुम्हारा जो अपयश सीताहरणके कारण हो रहा है उसको दूर करो] अनीतिकी धूमरी यशो रूप पाम्रकी उत्तम मारीका नाश कर देती है । [इसलिए अनीतिके मार्गको छोड़ दो।
इसमें [वक्ता] दूसरेके दोषका उद्घाटन [कर रहा है । (५) अब 'छादन' [नामक विमर्श सन्धिके पञ्चम अङ्गका निरूपण करते हैं[सूत्र ६४]-अपमानका परिमार्जन 'छावन' कहलाता है ॥५८॥
मन्यु अर्थात् अपमानका मार्जन जिसके द्वारा किया जाय वह 'छादन' नामक प्रङ्ग कहलाता है।
जैसे रत्नावली में
"सागरिका-सौभाग्यसे प्रज्वलित हया अग्नि आज मेरे सारे दुःखोंको समाप्त कर देगा।"
अन्य लोग तो विशेष प्रयोजनके कारण असह्य अर्थको भी सह लेनेको 'छादन' मानते हैं।
जैसे-श्री शुक्तिवासकुमारके बनाए हुए 'अनंगसेना हरिनन्दी नामक प्रकरणके नवम अङ्क में, राजपुत्र चन्द्रकेतुके द्वारा दिए हुए कानोंके अलंकारके जोड़ेको नायिका माधवीने नायकके पास भेजा था । नायक हरिनन्दीने पुष्पलक नामक ब्राह्मणको राजबन्धनसे मुक्त करानेके लिए उसे उसकी [पुष्कलक ब्राह्मरणको] माताको दान कर दिया। उस [कर्णाभरण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org