Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् । का०४८, ० ६३ श्रद्धालुयुगपद् विलोकितुमयं स्वापत्यजातं विगत ,
एकम्थं विरचय्य कुन्दरदने त्वामर्णवः सूतवान् । प्रनिमुखस्य चादावेवेदमङ्ग निबन्धनीयम। य एक मुखे रस उपक्षिप्यते नम्यैव स्थाया, विभावानुभावव्यभिचारिभिः पोषणीयः। कामपाले च रूपके मुखमन्धावुपक्रान्तः शृङ्गारःप्रतिमुखे विलासेन स एव विस्तार्यते । विलासप्रकाशकान्येव चेतराण्यङ्गानि निबन्धनीयानि । प्रतीत होता है कि अपनी सारी सन्तानोंको एक साथ देखने के लिए उत्सुक [श्रद्धालु] सागर ने बहुत दिनों के बाद उन सबको एक साथ मिलाकर तुमको उत्पन्न किया है।
इस श्लोकमें मित्राणन्दकी कौमुदीके प्रति रतिका वर्णन किया गया है। इसलिए यह भी प्रतिमुखसन्धिके विलास नामक प्रथम अङ्ग का उदाहरण है।
इस [विलास नामक अङ्गको प्रतिमुख-सन्धिके प्रारम्भमें ही निबद्ध करना चाहिए। [इसके साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस रसका मुखसन्धिमें उपक्षेप किया गया है उसीके स्थायिभावको [प्रतिमुखसन्धिमें] विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावोंके द्वारा सम्पुष्ट किया जाना चाहिए। कामफलवाले रूपक में मुखसन्धिमें शृङ्गार-रसका उपक्षेप होता है । इसलिए प्रतिमुखसन्धिमें विलासके द्वारा उसीका विस्तार किया जाता है । और विलासके प्रकाशक ही [प्रतिमुख-सन्धिके] अन्य अङ्गोंकी रचना करनी चाहिए।
___ विलासो नृ-स्त्रियोरीहा' इस लक्षणके अनुसार पुरुष और स्त्रीको इच्छा या रतिका प्रदर्शित करना 'विलास' कहलाता है । यह "विलास' नामक अङ्ग प्रतिमुखसन्धिका प्रथम अङ्ग है। इसलिए प्रति मुख सन्धिके प्रारम्भमें उसको निबद्ध करना चाहिए। वेणीसंहार नाटकके रचयिता भट्टनारायणने अपने नाटककी रचना करते समय नाट्यके नियमोंका पालन कठोरताके साथ करने का यत्न किया है । इसलिए उन्होंने अपने नाटकके द्वितीय अङ्कमें प्रतिमुखसन्धिके प्रारम्भ में दुर्योधन तथा भानुमतीके विलासका वर्णन बहुत विस्तारके साथ किया है। किन्तु उत्तरवर्ती सभी आलोचकोंने भट्टनारायणके इस कार्यको अनुचित ठहराया है। इसका कारण यह है कि वेणीसंहार वीररस-प्रधान नाटक है । उस में इतने अधिक विस्तारके साय शृङ्गाररसका प्रदर्शन उचित नहीं है। इससिए 'प्रकाण्डे प्रथनम्' नामक रसदोष के उदाहरण के रूपमें सर्वत्र वेणीसंहारका यह प्रकरण ही प्रस्तुत किया गया है। यहां भी ग्रन्थकारने उसके अनौचित्यकी ओर सङ्कत किया है। उन्होंने इस अनौचित्यका कारण यह बतलाया है कि मुखसन्धिमें जिस रसका उपक्षेप किया जाय, उसीका पोषण प्रतिमुखसन्धिमें विलास प्रादि अङ्गों के द्वारा किया जाना चाहिए। शृङ्गाररस-प्रधान नाटकोंमें मुखसन्धिमें शृङ्गाररसका उपक्षेप किया जाता है, इसलिए प्रतिमुखसन्धिमें विलास नामक अङ्गके द्वारा उसका ही पोषण किया जाना उचित है। किन्तु वीररस प्रधान नाटक में, मुखसन्धिमें जब वीररसका उपक्षेप किया गया है तब प्रतिमुख-सन्धिमें विलास नाममाङ्गके द्वारा उसका ही पोषण होना चाहिए । वीरसरस-प्रधान नाटकके प्रतिमुखसन्धिमें शृङ्ग सका पोषण प्रधान रसके विपरीत हो जाता है अतः दोषाधायक है । इसलिए वेणीसंहार। यह प्रकरण अनुचित है । ग्रंथकारका यह भी कहना है कि यद्यपि प्रतिमुखसंधिके विलास अङ्गका लक्षण 'नृ-स्त्रियोरीहा' किया गया है किन्तु उसका अभिप्राय केवल सम्भोगकी इच्छा या शृङ्गार-भावना ही
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