Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् । का०५०, सू० ७५ सीता-वरं अत्तणो सरीरस्स अच्चाहिद, न उण नवोधणाणं । इय अधिरुहामि मंदभाइणी । हा अज्जपुत्त ! [इति रुदता आरोहं नाटति] इति ।
वरमात्मनः शरीरस्य अत्याहितं, न पुनस्तपोधनानाम । इयमधिरोहामि मन्दागिनी । हा आर्यपुत्र ! इति संस्कृतम्] यथा वा रघुविलासै--
विराधवेषो रावण:--[रामं प्रति] आगन्तवो यूयं, अहं पुनराकलितविपिनकुहरो वने चरदेशीयः । प्रभूतान्तरायं सम्परायं च रावणप्रमुखेभ्यो रक्षाभ्यः सम्भावयामि भवताम् । वधूवागुरानियन्त्रितमनसश्च कुत एव योद्धमलम्भविष्णवः। तदियमार्या वैदेही किमपि वनकुहरमलंकुरुताम् ।”
___ इयमपहारार्थिना रावणेन सीतामेकांकिनी कतु युक्तिर्दशिता । इति । (१३) अथानुसर्पणम् -
सूत्र ७५]-नष्टेष्टेहा ऽनुसर्पणम् ॥ ५० ॥ पूर्वमुपलब्धस्य पुनरन्तरितस्य इतिवृत्तवशादभिलषितस्याथस्य ईहा अन्वेषणं अनुसर्पणम् । यथा पार्थविजये द्वितीयेऽङ्क द्रौपदी युधिष्ठिरमुद्दिश्याह
"द्रौपदी-महाराय इमाहिं य्येव दिवसपरिवत्तण गणणाहि किणीभदपाय - भकुवे यदुक्खम्स मे हिय यस्स पम्हुट्ठो विय अणज्जदुस्सासणण अत्तणो केसग्गहावमाणवुत्तंतो।
सीता- अपने शरीरको भयमें डाल देना अच्छा है किन्तु तपस्वियोंको [संकट में डालना उचित नहीं। अच्छा मैं मंदभागिनी चढ़ती हूँ। हा प्रार्यपुत्र ! [ऐसा कहकर रोती हुई वैदेही पुष्पक विमानपर प्रारोहणका अभिनय करती है।"
__ अथवा जैसे रघुविलासमें [उपन्यासका दूसरा उदाहरण]--
___ "विराध वेषधारी रावरण [रामके प्रति कहता है] पाप लोग [बाहरसे प्राए हुए हैं। और मैं इस वनको कुहरोंको छाना हुआ लगभग वनचर हूँ। इसलिए मैं रावण प्रादि राक्षसों के द्वारा [आपके मार्गमें] अनेक विघ्नों तथा युद्धोंकी सम्भावना करता हूँ। [उस समय स्त्री के झंझटमें आपका मन उलझा होनेसे पाप उनके साथ लड़नेमें कैसे सफल हो सकेंगे । इसलिए इन प्रार्या वैदेहीको वनकी किसी गुफामें रख दीजिए।
सीताके अपहरणके चाहनेवाले रावणने सीताको अकेला करनेके लिए यह युक्ति दिखलाई है [अतः यह भी 'उपन्यास' अङ्गका उहाहरण है] । (१३) अनुसर्पण--
अब 'अनुसर्पण' [नामक प्रतिमुखसंधिके तेरहवें अङ्गका क्षरण पावि कहते हैं[सूत्र ७४]-विस्मृत हुए इष्ट अर्थका पुनः अनुसंधान 'अनुस[कहलाता है ।५०।
पहिले [एक बारके अनुभव द्वारा प्राप्त हुए, फिर [किर. कारणसे विस्मृति द्वारा लुप्त हुए, अभिलषित अर्थका कथाप्रसंगके वशसे फिर दुबारा अनुसंधान [या स्मृति] अनुसर्पण [नामक प्रङ्ग कहलाता है।
असे पार्थविजयके द्वितीय अङ्कमें द्रौपदी युधिष्ठिरसे कहती है...
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