Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् [ का० ५०, सू०७२ . अत्र वसुभूतिवाक्यादुत्तरवाक्यं समर्थकत्वेन विशेषदिति ॥ ४६ ।। (१०) अथ प्रगमनम्
. [सूत्र ७२] -प्रगमः प्रतिवाक्-श्रेणिः
प्रश्नप्रतिपन्थिनी वाक प्रतिवाक् । तस्याः श्रेणिः । अपकर्षितो वे प्रतिवचने, उत्कर्षतो बहून्यपि । यथा वेणीसंहारे
"भानुमती-अय्यउत्त ! अदिमित्तं मे संका बाधाद। ता अणुमन्नेदु मं अज्ज उत्तो। [आर्यपुत्र ! अतिमात्रं मी शंका बाधते । तदनुमन्यतामामार्यपुत्रः । इति संस्कृतम्] राजा-अयि देवि !
किं नो व्याप्तदिशां प्रकम्पितभुवामक्षौहिणीनां फलं, कि द्रोणेन किमंगराजविशिखैरेवं यदि क्लाम्यसि । भीरु ! भ्रातृशतस्य मे भुजवनच्छायासुखापाश्रिता,
त्वं दुर्योधन केसरीन्द्रगृहिणी शंकास्पदं किं तव ।। इसमें वसुभूतिके वाक्यके बादका [कुलपतिका वाक्य [पूर्व वाक्यके अर्थका] समर्थक होनेसे "विशेषवत्' है [इसलिए यह भी 'पुष्प' नामक अंगका उदाहरण है ।
पहिले उदाहरण में पूर्व वाक्य तथा उत्तर वाक्य दोनों के वक्ता भीष्म-थे। इसमें दोनों के वक्ता अलग-अलग हैं यह भेद है । (१०) प्रगमन---
अब 'प्रगमन' [नामक प्रतिमुख सन्धि के दशम अंगका लक्षण करते हैं][सूत्र ७२]--प्रश्नोत्तर-परम्परा [का नाम] 'प्रगम' है ।
प्रश्नको विरोधिनी [अर्थात प्रश्नको समाप्त करने वाली उत्तर रूप] वाणो 'प्रतिवाक्' [कहलाती है। उसकी श्रेणी [अर्थात् परम्परा प्रतिवाक्-श्रेणि' हुई । उसोको प्रगमन प्रङ्ग के नामसे कहते हैं। उस परम्परामें] कम-से-कम दो प्रतिवचन हों। अधिक तो बहुत भी हो सकते हैं। [उसका उदाहरण] जैसे वेणीसंहारमें----
___भानुमती-आर्यपुत्र ! [स्वप्न दर्शन के कारण] मुझे [अनिष्टको] शंका बहुत सता रही है। इसलिए आप मुझे [वतोपवासादि द्वारा उस अनर्थके प्रतिविधान करनेके लिए] अनुमति प्रदान करें।
राजा-अयि देवि !
[यदि तनिकसे अशुभ स्वप्नके दीख जानेसे तुम इस प्रकार उर जाती हो तो फिर] चारों दिशात्रोंमें व्यास, और पृथिवीको कम्पित कर सकने वाली हमारी प्रक्षौहिणी सेनाओं का क्या फल है ? यदि तुम इस प्रकार दुःखी हो रही हो तो [हमारे महारथी प्राचार्य] ब्रोण [के रहने से क्या लाभ हुमा ? और अंगराज [कर्ण] के [शक्तिशाली] बारणोंका क्या उपयोग हुआ ? [अर्थात् इन लोगोंके रहते हमारा कोई किसी प्रकारका भी अनिष्ट सम्भव नहीं है इसलिए तुमको घबड़ाने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है] हे भीर ! तुम मेरे सौ भाइयों के भुज-समूहको छायामें बैठी हुई दुर्योधन रूप मृगराजकी पत्नी हो, तुम्हारे लिए रनेका क्या कारण हो सकता है। [इसलिए तुम बिल्कुल मत डरो। हमारा कोई अनिष्ट नहीं होगा ।
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