Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ५०, सू० ७३ ] प्रथमो विवेकः
[ १४१ भानुमती-अय्याउत्त ! न हु मे किंचि संका तुम्हेसु सन्निहिदेसु । इति ।
[आर्यपुत्र ! न हि मे काचिच्छंका युष्मासु सन्निहितेषु । इति संस्कृतम्] यथा वा नलविलासे तृतीयेऽङ्के--
"दमयन्ती-[भुजमवलम्बिते राजनि क्रमादाह-] जई एवं मुंच मे पाणिं | [यद्येवं मुंच मे पाणिम् । इति संस्कृतम्] । राजा--कथमपराधकारी मुच्यते ? दमयन्ती-किं एदिणा अवरद्धं । [किमेतेनापराद्धम । इति संस्कृतम्] । राजा--एतेन मत्प्रतिकृतिमालिख्य अहमियति विरहानले पातितः ।
दमयन्ती---[मत्वा] जइ एवं ता अहं पि ते पाणिं गहिस्सं । तव पाणिलिहिदेन पडेण अहं पि एतावत्थसरीरा जादा । इति ।
[यदि एवं तदाहमपि ते पाणिं ग्रहीष्ये । तव पाणिलिखितेन पटन अहमेतदवस्थशरीरा जाता । इति संस्कृतम्] । (११) अथ वज्रम्
[सूत्र ७३]-वज्रं प्रत्यक्षकर्कशम् । यनिष्ठुरत्वात् प्रत्यक्षरूक्षं वाक्यं यच्च पूर्वप्रयुक्तस्यान्यवाक्यस्य अनुष्ठानस्य वा प्रध्वंसकं तद् वज्रमिव वज्रम् । यथा वेणीसंहारे--
भानुमती-हे प्रार्यपुत्र [सचमुच हो] आपके समीप रहने पर मेरे लिए कोई शंका [का स्थान नहीं है।"
इसमें दुर्योधन तथा भानुमती के प्रश्नोत्तरके रूप में प्रतिवाक्-श्रेरिण दिखलाई गई है ! इसलिए यह 'प्रगम' नामक अङ्गका उदाहरण है ।
अथवा जैसे नलविलासमें तृतीय अंकमें"दमयन्ती-यदि ऐसी बात है तो मेरा हाथ छोड़ दो। राजा-अपराधीको कैसे छोड़ा जा सकता है ? दमयन्ती--इसने क्या अपराध किया है ? राजा---इसने मेरी तस्वीर बनाकर मुझे इस प्रकारके विरहानल में डाल दिया है।
दमयन्ती--तो फिर मैं भी तुम्हारा हाथ पकड़ेंगी। तुम्हारे हाथके द्वारा लिखे गए पटके कारण मेरे शरीरकी यह हालत हो गई है।
इसमें नल-दमयन्तीके उत्तर-प्रत्युत्तरकी परम्परा होने से यह भी 'प्रगम' अङ्गका उदाहरण है। (११) 'वज्र'
अब 'वज्र' [नामक प्रतिमुख सन्धिके ग्यारहवें अंगका लक्षण आदि कहते हैं]--- प्रत्यक्ष रूपसे कर्कश [प्रतीत होने वाला वचन] 'वज्र' [कहलाता है।
जो वाक्य कठोर होनेके कारण स्पष्ट रूपसे ही रूक्ष है और पूर्व कहे हुए वाक्य अथवा [पूर्व किए हुए] कार्यका विनाश कर देता है वह वज्रके समान कठोर और कार्य-विध्वंसक होनेसे 'वज्र' [कहलाता है। जैसे बेणीसंहारमें
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