Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ४८, सू० ३६०:
प्रथमो विवेक:
[ १३१
प्रहस्तः-- [पादयोर्निपत्य] प्रसीदतु प्रसीदतु महाराजः । नेदमनुरूपं स्वामिनः ।
देव !
-लोकत्रयक्षयोद्वत्तप्रकोपामेसरस्य ते ।
ईशचन्द्रहासस्य भृत्येष्वनुचिनः क्रमः ॥
[पुनः क्रमादाह] देव प्रसीद प्रायादतिक्रमोऽयं न वामतया । इति मारीचं प्रति क्रुद्धस्य रावणस्य प्रहस्तविहितोऽयमनुनयः सान्त्वनम् । वज्रमप्यत्र प्रसङ्गात् प्रयुक्तम् | "कुष्ठः सङ्कर दुर्मद्रव्य भवतः स्याञ्चन्द्रहासो ऽप्यसिः, इत्यस्य प्रत्यक्षनिष्ठुरत्वात् ।
(५) अथ वर्ण संहृति:
[ सूत्र ६७ ] पात्रोधो वसंहति ॥ ४८ ॥
पृथक् स्थितानां पात्राणामोघः कार्यार्थ मीलनम्। वर्ण्यन्ते इति वर्षा, तेषां नायक प्रतिनायक-नायिका - सद्दायादिपात्राणां संहतिरेकत्रकरणम् । यथा रत्ना
वल्याम-
राजा-राजा सुनङ्गते ! क्वासों, क्वासौ [ इत्यत आरभ्य ] -
इस प्रकार यहाँ तक रावण के कोपका वर्णन किया है। इसके अगले भाग में प्रहस्त, मारीचके प्रति रावणके इस कोपका शमन करनेका यत्न करते हुए कहता है-
प्रहस्त - [पैरों में गिरकर ] प्रसन्न हों महाराज, प्रसन्न हों ! यह कार्य प्रापके अनुरूप नहीं है । देव !
तीनों लोकोंका नाश करने में समर्थ प्रकोपवालोंमें अग्रगण्य ! इस प्रकारका श्रापके चंद्रहास [तलवार ] का भृत्योंपर प्रहार उचित नहीं है ।
[ उसके आगे फिर कहता है] देव ! प्रसन्न हों । प्रेमके कारण ही यह [ मर्यादाका ] प्रतिक्रमण [ मारीचने] किया है, विरोधी होकर नहीं ।
इस प्रकार मारोचके प्रति क्रुद्ध हुए रावरण के प्रति प्रहस्तका अनुनय सान्त्वन [अङ्गका उदाहरण] है । इसमें प्रसङ्गतः [अगले श्रङ्ग] 'वज्र' का भी प्रयोग किया गया है । [ प्रत्यक्ष निष्ठुर वचनका प्रयोग 'वज्र' कहलाता है । सो इस प्रसंगमें] युद्धके दुरभिमानी तुम्हारी चन्द्रहास [ नामक ] तलवार भी कुण्ठित हो जायगी. इस [ मारीचके कथन ] के प्रत्यक्ष हो निष्ठुर होनेसे [ यह 'वज्र' का भी उदाहरण है । (५) वर्ण संहार -
'व संहृति' [नामक प्रतिमुखसंधि के पञ्चम श्रङ्गका लक्षण करते हैं][सूत्र ६७ ] -- [ श्रनेक] पात्रोंका समुदाय [ इकट्ठा हो जाना ] 'वहुति' [नाम श्रङ्ग कहलाता ] है ।
अलग-अलग स्थित पात्रों का 'प्रोघ' अर्थात् किसी कार्यकेलिए एक साथ सम्मिलित [वसंहृति कहलाता है]। जिनका वर्णन किया जाय वे [पात्र ] 'वस हैं। उन 'वर्णों' अर्थात् नायक, प्रतिनायक, नायिका सहाय श्रादि पात्रोंका, संहृति अर्थात् इकट्ठा होना [वर्णसंहृति कहलाता है ] है । जैसे रत्नावली में -
राजा -- सुसंगते वह कहाँ है, कहाँ है । [ यहाँसे लेकर ]
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