Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ४५, सू० ५६ ] प्रथमो विवेकः
___ इति द्रौपद्या अभिप्रेतार्थप्राप्तिरिति ।। (१०) अथ. युक्ति:
[सूत्र ५६]--युक्तिः कृत्यविचारणा। विचारणा गुणदोषविवेकतः कार्यपर्यालोचनम् । यथोदात्तराघवे"लक्ष्मण:
कि लोभेन विलडिन्तः स भरतो येनैतदेवं कृतं, मात्रा स्त्रीलघुतां गता किमथवा मातैव मे मध्यमा ? मिथ्यैतन्मम चिन्तितं द्वितयमप्यार्यानुजोऽसौ गुरु,
माता तातकलत्रमित्यनुचितं मन्ये विधात्रा कृतम् ।" इयं च युक्ति स्थानान्तरभाविन्यपि तापसवत्सराजे उपक्षेप-परिकरान्तरे निबद्धा दृष्टेति । राघवाभ्युदये तथैवास्माभिर्ग्रथिता। तत्र हि
"मतिसागर:~यन् पुरा भट्टारकेण सागरबुद्धिना विभीपणाय कथितं यथा
इससे द्रौपदीके अभिप्रेत अर्थको प्राप्ति कही है [इसलिए यह 'प्रापरण' नामक सन्ध्यङ्ग का उदाहरण है। (१०) युक्ति --
अब युक्ति [नामक, मुखसन्धिके वशम अङ्गका लक्षण करते हैं][सूत्र ५६]-कार्यका विचार करना युक्ति [नामक दशम अङ्ग कहलाता है। विचारणा अर्थात् गुण-दोषके विवेचन द्वारा कार्यका पर्यालोचन करमा । जैसे 'उदात्तराधव' में"लक्ष्मरण [कहते हैं
क्या वह भरत [राज्यके] लोभसे पराभूत हो गए जिससे [रामको वनवास दिलानेका] यह कार्य किया है । अथवा क्या मेरी मझली माता [कैकेयी] ही मानमें स्त्री के समान लघुता को प्राप्त हो गई थीं। [जिसके कारण उन्होंने यह नीच कार्य करवाया]। अथवा मेरी सोची हुई ये दोनों ही बातें मिथ्या हैं क्योंकि ये मेरे बड़े भाई [गुरु अर्थात् भरत प्रार्यके [अर्थात् रामचन्द्र के अनुज हैं। [अर्थात् रामचन्द्रजीके अनुज और मेरे गुरु भरत कभी ऐसा अनुचित कार्य नहीं कर सकते हैं और माता [कैकेयी] पिताजीकी पत्नी हैं [इस लिए वे कभी इस गहित पापको नहीं कर सकती हैं । इस लिए इन दोनोंके विषय में सोचना अनुचित है। तब फिर यह कार्य हुआ कैसे, इसका समाधान करते हैं कि मालूम होता है कि यह अनुचित कार्य देवने ही किया है ।"
इस प्रकार कार्यकी विचारणरूप होने से यह 'युक्ति' नामक अङ्गका उदाहरण है।
यह युक्ति [नामक अङ्ग मुखसंधिमें] अन्य स्थानपर होनेवाली [अर्थात् दशम स्थानपर पठित होनेपर भी 'तापसवत्सराजचरित' में 'उपक्षेप' तथा 'परिकर' के बीच में [द्वितीय स्थानपर निबद्ध किया हुआ देखा जाता है । इसलिए 'राघवाभ्युदय' में हमने भी उसी प्रकार [उपक्षेप तथा परिकरके बीच में अथित कर दिया है। वहाँपर -1
"मतिसागर-स्वामी सागरबुद्धिने जो पहले कभी विभीषणसे कहा था कि
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