Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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११२]
(५) अथोदभेदः -
नाट्यदर्पणम्
[ सूत्र ५४ ] स्वल्पप्ररोह उद्भेद:
श्रीमुखानन्तरमुप्तस्य बीजस्य स्वल्पप्ररोहः, किञ्चित् फलानुष्ठानानुकूल्यप्रदर्शनं धान्यस्योच्छूनतेव 'उभेद:' । बीजस्योद्घाटन मं कुरवल्पम्, उद्भेदः पुनरंकुर कल्पादुद्घाटनाद भूमिन्यस्तधान्योच्छूनते व प्राचीनावस्था इत्ययं मुखसन्धेरेवाङ्गम् । न पुनरुदुघाट रूपत्वात् प्रतिमुखसन्धेः । यथा वेणीसंहारे-" नाव पुणो वि तए आगच्छिय अहं समासासइदव्वा ।" [नाथ पुनरपि त्वयागत्याहं समाश्वसयितव्या । इति संस्कृतम् ]
इस प्रकार यहाँ तक मुखसन्धिके उपक्षेप, परिकर परिन्यास तथा समाधान रूप चार जोंका वर्णन हो चुका है । अब उदुभेद नामक पश्चम श्रङ्गका वर्णन प्रारम्भ करते हैं । उपभेद - शब्द से मिलता-जुलता दूसरा उद्घाट-शब्द है । इस शब्दका प्रयोग प्रतिमुखसन्धि के लक्षण के प्रसङ्ग में पहिले किया जा चुका हैं । " प्रतिमुखं कियल्लक्ष्यबीजोद्घाटसमन्वितः " प्रतिमुखसंधि के इस लक्षण में 'बीजोद्घाट' की चर्चा की गई थी । यहाँ मुखसंधि के पञ्चम भेद का नाम 'उभेद' है । इसमें भी बीजके 'स्वल्पप्ररोह' की चर्चा की गई है । इससे कभी यह प्रश्न हो सकता है कि इस 'उद्भेद' और 'उद्घाट' में क्या अन्तर है । इस लिए इस 'उद्भेद' रूप मुखसंधि के अङ्गकी व्यवस्था के प्रसङ्गमें ही ग्रंथकारने प्रतिमुखसंधि के 'उद्घाट' से 'उद्भेद' का यह अन्तर दिखलाया है कि जैसे बीजको भूमिमें बोनेके बाद पहिले बीज फूलता है तब उसके बाद बीज फूटकर उसमें से अंकुर निकलता है । उसी प्रकार बीजको फूलनेवाली अवस्था के समान यहाँ नाट्य बीजका जो स्वल्प विस्तार होता है वह 'उद्भेद' कहलाता हैं । और धान्य बीजकी अंकुरावस्था के समान जो और अधिक विस्तार होता है वह 'उदूघाट' कहलाता है। इस प्रकार 'उद्भेद' प्रङ्ग, 'उद्घाट' की अपेक्षा पूर्ववर्ती श्रङ्ग है । इसी लिए वह मुखसन्धिका अङ्ग है। और 'उद्घाट' उसके बादकी अंकुर कल्प अवस्था है। इस लिए वह 'उद्भेद' के बादकी श्रौर प्रतिमुखसन्धि की अवस्था है। 'उद्भेद' श्रौर 'उद्घाट' के इस भेदको ग्रन्थकार 'उद्भेद' को व्याख्या में आगे दिखलाते हैं । (५) उभेद
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[ का० ४४, सू० ५.४
अब उभेव [नामक मुखसन्धिके पञ्चम अङ्गका लक्षण कहते हैं ] -
[ सूत्र ५४ ] - [ बीजका ] थोड़ा-सा विस्तार उभेद [नामक श्रङ्ग कहलाता ] है । श्रामुखके बाद बोए गए [कथावस्तुके] बीजका तनिक-सा विस्तार प्रर्थात् थोड़ी-सी फलको धनुकूलताका प्रदर्शन, धान्यकी उच्छूनता [ फूलने] के समान [ होनेसे ] 'उभेव' [कहलाता ] है । [ प्रतिमुख सन्धिमें कहा जानेवाला ] बीजका 'उद्घाट' [धान्यबीजके ] अंकुर के समान हैं। और उद्भेद अंकुर कल्प उद्घाटसे पूर्ववर्ती धान्यके फूलनेके समान उससे पहिली अवस्था है । इस लिए यह [ उद्भेद] मुखसंधिका ही प्रङ्ग है । न कि 'उद्घाट' रूप होनेसे प्रतिमुखसंधिका । [ अर्थात् प्रतिमुखसंधिके 'उद्घाट' से सुखसंघिका 'उद्भेद' श्रङ्ग बिलकुल भिन्न तथा उससे पूर्ववर्ती श्रवस्था रूप है ।]
जैसे वेरणीसंहार में -
" हे नाथ ! श्राप फिर भी प्राकर मुझे भाश्वासन देवें ।
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