Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० ४१-४२, सू० ४६ ] प्रथमो विवेकः
- अङ्गसंख्यानियमश्च सन्धिषूपात्ताङ्गापेक्षया। सन्ध्यन्तरङ्गानुप्रवेशे तु न संख्यानियमः। संख्यासंक्षेपश्चाङ्गानां परस्परान्तर्भावेन प्रतिसन्धिसुकरोऽपि प्राचीनैरकृतत्वात् , भणितिभंगिबाहुल्यस्य च चमत्कारकारित्वादस्माभिर्न कृतः। 'ध्र वम्' इति मुखसन्धिः सर्वरूपकेष्ववश्यं भवति । निर्वहणमप्येवम् । श्रारम्भनिर्वाहयोरवश्यम्भावित्वात् । प्रतिमुखादयस्तु व्यायोगादिषु यथालक्षणं भवन्ति, न भवन्ति च ।
. अङ्गानि च वृत्तविस्तरकारित्वादवश्यं निबन्धनीयानि । अपरथा 'रामस्य पत्नी रावणेन वनान्तादपहृता। रामेण च जटायुषः समुपलभ्य, सुग्रीवं सहायं वानराधिराज्यप्रतिपादनादधिगम्य, समुद्रसेतुबन्धमाधाय, निहत्य च रावणं प्रत्यानीता इत्यत्र प्रारम्भाद्यवस्थानिबन्धनीयैः पञ्चभिरपि सन्धिभिर्बीजाशुपाययुक्तैनिबद्ध रूपके वृत्तसंक्षेपः स्यात् । तथा च न चमत्कारः। किं चारञ्जकमपि वृत्तं अङ्गवैचित्र्येण निबध्यमानं परां रक्तिमावहति । कार्यवशाच्च पुनरुच्यमानमपि वृत्त अङ्गभङ्गया निबद्धमपुनरुक्तमिवाभाति । अयःशलाकाकल्पता च अङ्गसम्बद्धाय वृत्तस्य न भवति । प्रत्येकशश्चाङ्गानां प्रयोजन यथावसरं लक्षणे दर्शयिष्यामः ॥४१
अङ्गोंको संख्याका नियम [उन-उन] सन्धियोंमें गृहीत अङ्गोंकी दृष्टिसे ही होता है। अन्य सन्धियोंके अङ्गोका अनुप्रवेश हो जानेपर तो यह संख्या-नियम नहीं रहता है। और प्रत्येक सन्धिमें [कुछ अङ्गोंका] एक-दूसरे में अन्तर्भाव करके अगोंको संख्याका संक्षेप सम्भव होनेपर भी प्राचीन प्राचार्योंके द्वारा न किए जानेके कारण तथा कथन-शैलियोंके बाहुल्यके चमत्कारजनक होनेके कारण हमने नहीं किया है । 'ध्र वम्' इस [पद]से [यह सूचित किया है कि] मुखसन्धि समस्त रूपकोंमें अवश्य होता है । इसी प्रकार निर्वहरणसन्धि भी [रूपकके समस्त भेदोंमें अवश्य होता है । [प्रत्येक रूपक अथवा प्रत्येक कार्य में प्रारम्भ और समाप्तिके अवश्यम्भावी होनेसे [प्रत्येक रूपकमें मुखसन्धि तथा निर्वहरणसन्धिका होना अपरिहार्य है । अन्य सन्धियोंका सब रूपक भेदोंमें होना अपरिहार्य नहीं है] प्रतिमुख प्रादि [अन्य सन्धियाँ] तो लक्षणोंके अनुसार व्यायोग आदि [रूपक भेदोंमें होती भी हैं और नहीं भी होती हैं।
[प्रत्येक सन्धिमें वरिणत] अङ्गोंके, कथावस्तुके विस्तारकारी होनेसे अङ्गोंकी रचना (रूपकोंमें] अवश्य करनी चाहिए । अन्यथा [रूपकको कथावस्तु बहुत संक्षेपमें समाप्त हो जानेके कारण चमत्कार-शून्य हो जावेगी। जैसे] (१) रामको पत्नीको रावणने हरण कर लिया। (२) रामचन्द्रने जटायुसे [इस समाचारको] जानकर, (३) वानरोंके अधिराजपदको प्रदान करनेके द्वारा सुग्रीवको अपना सहायक बनाकर, (४) समुद्रपर सेतुबन्ध बनाकर और रावरणको मारकर, (५) उसको लौटा लिया इस [रामायणको कथा में प्रारम्भावि प्रवस्थानों के द्वारा विरचित तथा बीजादि उपायोंसे युक्त पाँचों सन्धियों [के प्रयोग] से [युक्त] रूपकको रचना करनेपर [भी] कथावस्तुका [अत्यन्त] संक्षेप हो जाता है। इसीलिए उसमें कोई चनत्कार नहीं रहता है । [इसके विपरीत] अरञ्जक [नीरस] कथावरतु भी विभिन्न अङ्गों द्वारा [विस्तार-पूर्वक वणित होनेपर अत्यन्त मनोरञ्जक बन जाती है । और कार्यवश [कहींकहीं] कथाभाग पुनरुक्त होनेपर भी प्रङ्गोंको शैलीसे निबद्ध होनेपर पुनरुक्त-सी प्रतीत नहीं
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