Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
View full book text
________________
so ]
नाट्यदर्पणम् [ का० २६, सू० २७ अथ पताका निरूपयति
[सूत्र २७]-प्राविमर्श पताका चेच्चेतनः स परार्थकृत् ॥२६॥
स्वार्थाय प्रवृत्तो यो हेतुश्चेतनः परस्य प्रधानस्य प्रयोजन सम्पादयति स प्रसिद्धि प्राशस्त्यहेतुत्वात् पतावे व 'पताका'। सुग्रीव-विभीपणादिहि रामादिनोपक्रेयमाणो रामादेरात्मनश्चोपकाराय भवन् , रामादेः प्रसिद्धि प्राशस्त्यं च सम्पादपति । 'चे' इति यदि फललाधने साहाय्यापेक्षाणां नायकानां वृत्तं निबध्यते, तदा पताका भवति। न तु स्वपराक्रमबहुमानिनामिति । एवं प्रकर्यपि। अविमर्शमिति यदा मर्यादायामाङ्, तदा मुख-प्रतिमुख-गर्भान् , यदा पुनरभिविधौ, तदा विमर्शमभिव्याप्य विरमति । तावत्येव पताकानायकस्य स्वफलसिद्धिनिबध्यते । निर्वहणसन्धावपि तत्फले निबध्यमाने तुल्यकालयोरुपकार्योपकारकत्वाभावात् , न तेन प्रधानस्योपकारः स्यात् । सिद्धफलस्त्वसौ प्रधानफल एव व्याप्रियमाणो भूतपूर्वगत्या पताकाशब्दवाच्य इति ||२६||
अब [स्वार्थसिद्धिके साथ-साथ परार्थसिद्धि-पर उपकरणभूत चेतनसाधन रूप] पताका का निरूपण करते हैं
[सूत्र २७]-पताकाका होना अपरिहार्य नहीं है किन्तु] यदि वह चेतन स्वार्थसिद्धिसहित] परार्थकारी हो तो [मुखसन्धिसे लेकर विमर्शसन्धि-पर्यन्त 'पताका' [नायक हो सकता है । निर्वहरणसन्धिमें उसकी स्थिति नहीं रहनी चाहिए ॥२६॥
जो चेतन हेतु अपने स्वार्थ के लिए प्रवृत्त होनेपर भी दूसरे अर्थात् प्रधान नायकके प्रयोजनको सिद्ध करता है वह [प्रधान-नायकको प्रसिद्धि एवं प्राशस्त्यका हेतु होनेसे पताका के समान [गोरण रूपसे] 'पताका' [कहलाता है। सुग्रीव विभीषणादि रामादिके द्वारा उपकृत होकर रामादिके और अपने दोनों के उपकारक होकर रामादिको प्रसिद्धि और प्राशस्त्य को सिद्ध करते हैं [इसलिए 'पताका' कहलाते हैं] । 'चेत्' इस पदसे [यह बात सूचित की है कि यदि फलसाइनमें सहायक की अपेक्षा रखने वाले नायकोंके चरित्रका वर्णन किया जाता है तब तो 'पताका' होता है किन्तु अपने ही पराक्रमको बहुत समझने वाले [नायकके चरित्र के वर्णन] में [पताका-नायक नहीं होता है। इसी प्रकार 'प्रकरी' में भी समझना चाहिए । 'प्रा-विमर्श' इस पदमें जब प्राङ् 'मर्यादा' अर्थमें है तब ['तेन विना मर्यादा' उस विमर्शसन्धिको छोड़कर मुख प्रतिमुख और गर्भसन्धियोंमें, और जब 'अभिविधि' में [प्राङ्का प्रयोग माने तो 'तेन सह अभिविधिः' उस विमर्श सन्धिको भी सम्मिलित करके] विमर्श-सन्धि पर्यन्त पताका [नायकका चरित्र] समाप्त होता है। [अधिकसे अधिक] वहाँ तक ही पताकानायक के अपने फलकी सिद्धि हो जाती है। यदि निर्वहण-सन्धिमें भी उस [पताका-नायक] के फल का वर्णन किया जाय तो समान काल तक रहने वाले [प्रधान-नायक और पताका-नायकके चरित्रोंमें] उपकार्य-उपकारक भार सम्भव न होनेसे उस [पताका-नायक के द्वारा प्रधाननायकका उपकार नहीं हो सकेगा। [विमर्श-सन्धि पर्यन्त हो] फलकी सिद्धि हो जानेपर तो [निर्वहरणसन्धिमें] वह प्रधान-नायकके फलके लिए ही यत्न करता हुआ [अब पताका न रहनेपर भी] भूतपूर्व गतिसे 'पताका' शब्दसे कहा जाता है ॥२६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org