Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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६४ ]
नाट्यदर्पणम्
(४) अथ दशानन्तरमुद्दिष्टान व्याख्यातु सन्धीनुपक्षिपति[ सूत्र ४३ ] - मुखं प्रतिमुखं गर्भाssमर्श - निवर्हणान्यमी । सन्धयो मुख्यवृत्तांशाः पञ्चावस्थानुगाः क्रमात् ||३७||
मुख्यस्य स्वतन्त्रस्य महावाक्यार्थस्यांशा भागाः परस्परं स्वरूपेण चान: सन्धीयन्ते इति सन्धयः । अवस्थाभिः प्रारम्भादिभिरनुगता, अवस्थासमाप्तौ समायन्त इत्यर्थः । अवस्थानां च ध्रुवभावित्वात् सन्धयोऽपि नाटक - प्रकरण-नाटिकाप्रकरणीषु पञ्चावश्यम्भाविनः । समवकारादौ तु विशेषोपादानादृनत्वेऽपि न दोषः । क्रमादिति मुखाद्युद्देशक्रमेण अवस्थाक्रमेण च निवध्यन्ते । इह तावत् प्रबन्धनिबन्धनीयोऽर्थोऽवस्थाभेदेन पञ्चभिर्भागेः परिकल्प्यते । एकैकशश्च भागो द्वादशत्रयोदशेत्यादिरूपया अङ्गसंख्यया विभज्यते । प्रासङ्गिकवृत्तसन्धयस्तु मुख्यसन्ध्यनुयायित्वादनुसन्धय एवेत्युक्तमेवेति ||३७|
[ का० ३७, सू० ४३
(४) सन्धि-निरूपण -
५वीं कारिका में निर्दिष्ट नाटक लक्षण में 'प्रङ्क' 'उपाय' और 'दशा' के बाद 'सन्धियों' का उल्लेख किया गया है । अत एव दशाओंका निरूपण कर चुकने के बाद अब सन्धियोंका निरूपण प्रारम्भ करते हैं । पाँच अर्थोपक्षेपक, पाँच अङ्ग र पाँच दशाओंके समान सन्धियों की संख्या भी पांच ही है । यहाँसे श्रागे उन पाँचों सन्धियोंका निरूपण किया जायगा । अब 'दशा' के अनन्तर कहे हुए [सन्धियों] की व्याख्या करनेके लिए 'सन्धियों' का प्रारम्भ करते हैं-
[ सूत्र ४३ ] - मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहरण ये [पूर्वोक्त ] पाँच अवस्थानों का क्रमशः अनुगमन करने वाले मुख्य कथाके पाँच भाग 'सन्धि' कहलाते हैं |३७|
मुख्य अर्थात् स्वतन्त्र महावाक्य [ नाटकके कथाभाग ] के अंश अर्थात् भाग, परस्पर अपने रूपसे और अङ्गोंके साथ मिलते हैं इसलिए 'सन्धि' [कहलाते हैं] । प्रारम्भ प्रावि [ पाँच ] अवस्था के साथ चलने वाले [ हैं इसलिए] अवस्थाकी समाझिपर [ सन्धि भी ] समाप्त हो जाते हैं । यह [' अवस्थानुगा:' पदका ] अभिप्राय है । [नाटकोंमें अवस्थाके लक्षण में कहे गए 'ध्रुव' पदसे] अवस्थाओं के अपरिहार्य होनेसे [ उनका अनुसरण करने वाले पाँचों] सन्धि भी नाटक, प्रकरण, नाटिका और प्रकरणी में अपरिहार्य हैं । समयकार प्रादि [रूपकोंके अन्य भेवों] में तो [सन्धियों की संख्याका ] विशेष रूपसे निर्देश होनेके कारण कम [ संख्या ] होने पर भी दोष नहीं है । [ कारिकामें प्राए हुए ] 'क्रमात्' इस [ पद ] से मुखादि रूपमें उद्देश के क्रमसे [अर्थात् जिस क्रमसे उनके नाम इस कारिकामें गिनाए गए हैं उसी क्रमसे] और वस्थाओं के क्रमसे ही [ सन्धियोंका ] समावेश किया जाता है । यहाँ [ नाटकमें] प्रबन्धमें वर्णनीय कथाभागको [ प्रारम्भ आदि ] श्रवस्थाओं के भेदसे पांच भागों में विभक्त किया जाता है । और उनमेंसे प्रत्येक भाग बारह-तेरह प्रादि रूप प्रङ्गोंकी संख्यामें बाँटा जाता है । [ये ही पाँच सन्धि और बारह तेरह श्रादि सन्ध्यङ्ग कहलाते हैं] । प्रासङ्गिक [ पताका प्रादि के] चरित्रके सन्धि तो मुख्य सन्धियोंके अनुगामी होनेके कारण 'अनुसन्धि' ही होते हैं यह मात पीछे कही जा चुकी है ॥ ३७ ॥
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