Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् का० ३८, सं० ४५ (२) अथ प्रतिमुखं व्याचष्टे---
[सूत्र ४५]-प्रतिमुखं कियलक्ष्यबीजोद्घाटसमन्वितः ॥३८॥
'प्रधानवृत्तांश' इहोत्तरेषु च स्मर्यते । कियल्लक्ष्यस्य मुखसन्धी गम्भीरत्वेन न्यस्तत्वादीषत् प्रकाशस्य बीजस्य प्रधानोपायस्य, उद्घाटेन प्रबलप्रकाशनेन, सम्यगनुगतः, प्रयत्नावस्थापरिच्छिन्नो यः प्रधानवृत्तांशः स मुखस्याभिमुख्येन वर्तत इति 'प्रतिमुखम'।
"द्वीपादन्यस्मादपि" इत्यादिना समात्येन सागरिकाचेष्टितरूपं बीज मुखसन्धौ न्यस्त, वसन्तोत्सवकामदेवपूजादिना तिरोहितत्वादीषल्लक्ष्यम् । तस्य च सुसङ्गतारचित राज-सागरिकासमागमेन द्वितीये अङ्के उद्घाट इति ॥३८॥ है। प्रत एव यहाँ भी मुखसंधि रसायः है] । नाव्यको रचनाका प्रारण ही रस है इसलिए [प्रतिमुख प्रादि] अगली संषियोंमें भी रसाभयत्व होना चाहिए । (२) प्रतिमुखसन्धि
अब प्रतिमुख [सन्धि] को व्याख्या करते हैं---
[सूत्र ४५]- [ मुखसन्धिमें ] सूक्ष्मरूपसे दिखलाई देने वाले [ कियलक्ष्य ] बीजके उद्घाटनसे युक्त प्रति-मुख [सन्धि] होता है।३८॥
[मुखसन्धिके लक्षणमेंसे] 'प्रधानवृत्तांशः' इस भागकी अनुवृत्ति यहाँ [इस प्रतिमुखके लक्षणमें] तथा प्रागे [गर्भ सन्धि प्राविक लक्षणमें ] भी पाती है । ['इह उत्तरेषु च स स्मर्यते इस वाक्यका यह अर्थ किया है] । "कियलक्ष्यस्य' [ पदका अभिप्राय यह है कि ] मुखसन्धिमें गूढ रूपसे प्रारोपित किए गए, इसलिए सूक्ष्म रूपसे दिखलाई देने वाले बीजके अर्थात् प्रधान उपायके, उद्घाटन अर्थात् प्रबल रूपसे प्रकाशनसे, सम्यक् अर्थात् स्पष्टरूपसे अनुगत, प्रयत्नावस्थामात्रमें व्याप्त, प्रधान वृत्तका जो भाग होता है वह मुखके सामने प्रागे विद्यमान होनेसे 'प्रतिमुख [प्रतिमुखसन्धि कहलाता है।
प्रतिमुखसन्धिके लक्षणकी इस व्याख्यामें तीन बातें कही गई हैं। पहली बात तो यह कही है कि 'प्रधानवृत्तांशः' इस भागका सम्बन्ध मुखसन्धिके लक्षणसे यहाँ भी लाना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मुखसन्धिमें बीजका सूक्ष्मरूपसे जो निवेश किया जाता है उसका प्रतिमुखसन्धिमें अधिक स्पष्ट रूपसे विकास उद्घाटन किया जाता है। और तीसरी बात यह है कि जैसे मुखसन्धि प्रारम्भावस्थाका अनुसरण करने वाला होता है । प्रारम्भावस्याके समाप्त होने के साथ ही मुखसन्धि समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार प्रतिमुखसन्धि प्रयत्न रूप द्वितीयावस्थाका अनुगामी होता है। द्वितीयावस्थाके समाप्त होने के साथ समाप्त हो जाता है। प्रागे इसीका उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ..
__ जैसे [रत्नावलीमें] 'डोपादन्यस्मावपि इत्यादिसे अमात्य [यौगन्धरारण] के द्वारा सागरिकाका व्यापार रूप बीज [प्रथमाकुमें] मुखसन्धिमें [सूक्ष्मरूपसे स्थापित किया था। वह बसन्तोत्सव, कामदेव-पूजनाविके द्वारा तिरोहित होनेके कार । थोड़ा-सा दिखलाई देता था। उसका सुसङ्गताके द्वारा कराए गए राजा और सागरिकाके समके द्वारा द्वितीयांकमें उदघाटन [अधिक विस्तार किया गया है। [मत एव द्वितीयांक.. कथाभाग उस नाटकमें प्रतिमुखसन्धि कहलाता है] ॥३६॥
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