Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् . [ का० ३४, सू० ३७ (३) अथ उपायानन्तरमुद्दिष्टां दशां लक्षयितु तदानुद्दिशति[सूत्र ३७] -प्रारम्भ-यत्न-प्राप्त्याशा-नियताप्ति-फलागमाः।
नेतुवृत्ते प्रधाने स्युः पश्चावस्था ध्रुवं क्रमात् ॥३४॥ 'नेतुः', मुख्यं फलं प्रति बीजाद्युपायान प्रयोक्तुः । 'अवस्थाः' प्रधानवृत्तविषये काय-वाङ्-मनसा व्यापाराः । 'ध्रुवम्' इति प्रधाने वृत्ते पञ्चानामवश्यम्भावमाह । तेन प्रासङ्गिके द्वयादयो अनुसन्धिवद् गौणाश्च भवन्ति । नाटकलक्षणप्रस्तावान्नाटके, नाट कलक्षणानुसारिषु प्रकरण-नाटिका-प्रकरणीषु चायं नियमः । तेन व्यायोगादी यथालक्षणं न्यूनावस्थत्वमपि न दोषाय । 'कमात्' इति उद्देशोक्तक्रमेणैव निबध्यन्ते, नापायवत् क्रमाक्रमाभ्याम् । प्रेक्षापूर्वकारिणां हि प्रथममारम्भः, ततः प्रयत्नः, ततः सम्भावना, ततो निश्चयः, ततः फल प्राप्तिरित्ययमेव क्रम इति ||४|| (३) पांच दशाओं का निरूपण
- पांचवीं कारिकामें नाटकका लक्षण करते समय १ अङ्क और २ उपायके अनन्तर तीसरे 'दशा' शब्दका प्रयोग किया गया था। 'दशा' भी नाटकका एक मुख्य भाग है। इसलिए उपायोंका निरूपण कर चुकनेके बाद 'दशा' का निरूपण प्रारम्भ करते हैं । विष्कम्भक आदि पाँच अर्थोपक्षेपकोंका वर्णन करने के बाद बीज आदि पाँच उपायोंका वर्णन किया गया था। उसी प्रकार अवस्थाओं और पागे कही जाने वाली सन्धियोंकी भी संख्या पांच-पांच है । इस समय पहले पाँच अवस्थानोंका वर्णन करते हैं।
अब उपायोंके बाद उद्दिष्ट 'दशा' का लक्षण करनेकेलिए उसके भेदोंको गिनाते हैं ['उद्दिशति' नाममात्रेण कथयति]
सूत्र ३७]-नायकके मुल्य चरित्र [वृत्त] में १ प्रारम्भ, २ यत्न, ३ प्राप्त्याशा, ४ नियताप्ति और ५ फलागम ये पांच अवस्थाएँ [इसी] क्रमसे मोर अवश्य होती हैं [इसमें पांच अवस्थानोंका उद्देशमात्र किया गया है। उनके लक्षण मागे करेंगे ॥३४॥
'नेता' अर्थात् मुख्य फल [को प्राप्ति के प्रति बोजादि उपायोंका प्रयोग करने वालोंके, [चरित्रमें पाँच अवस्थाएँ अवश्य होती हैं] । 'अवस्था' अर्थात् प्रधान चरित्रके विषयमें शरीर, वारणी तथा मनके व्यापार । 'ध्रुवम्' इस [पद] से प्रधान [नायक के चरित्रमें [वृत्ते पांचों [अवस्थामों की अपरिहार्यता सूचित की है। इसलिए प्रासङ्गिक [अर्थात् पताका प्रकरी प्रादिके चरित्रमें] अनुसन्धियोंके समान दो प्रादि [अवस्थाएँ] भी हो सकती हैं और वे गौरव हैं। नाटकके लक्षरणका प्रकरण होनेसे नाटकमें तथा नाटकके लक्षणका अनुसरण करने वाले प्रकरण नाटिका तथा प्रकरणी में भी यही नियम है [अर्थात् पाँचों प्रवस्थानोंका होना अनिवार्य है । इसलिए व्यायोग आदिमें उनके लक्षणोंके अनुसार [पाँचों प्रवस्थानोंका प्रयोग न करके] न्यूनत्व [अर्थात् दो-तीन-चार अवस्थानोंका प्रयोग] भी दोषाधायक नहीं होता है। 'कमात्' इस [पद] से [यह सूचित किया है कि पाँचों अवस्थाएँ] इसी क्रमसे निबद्ध करनी चाहिए उपायोंके समान कम या व्यतिक्रमसे नहीं । बुद्धिमान् पुरुषोंके कार्यमें पहले प्रारम्भ, फिर उसके बाद प्रयत्न, उसके बाद सम्भावना, उसके बाद निश्चय और अन्तमें फलप्राप्ति यही क्रम रहता है। [इसलिए नाटक में भी इसी क्रमसे अवस्थाओंका समावेश करना चाहिए] ॥३॥
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