Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम्
[ का० ३२, सू० ३३
चाणक्य:- [ सहर्षमात्मगतम् ] हन्त गृहीतो दुरात्मा राक्षसः । इति । इदं प्रत्युत्तरं सन्देश - ग्रहणज्ञापनप्रयोजनेन प्रयुक्त, चाणक्यस्य राक्षसग्रहं निश्चाययति इति सामान्यलक्षणम् ।
प्रत्येकं चकारश्चतुर्णामपि नाटकं प्रति प्राधान्यख्यापनार्थ इति ||३१|| अथ प्रकरीलक्षणमाह
[ सूत्र ३३] - प्रकरी चेत् क्वचिद्भावी चेतनोऽन्यप्रयोजनः ।
'क्वचिद्भावी' वृत्तैकदेशव्यापी । अन्यस्य ' मुख्यनायकस्य [प्रयोजनमेव ] प्रयोजनं यस्य । स चेतनः सहकारी प्रकर्षेण स्वार्थानपेक्षया करोतीति प्रकरी । श्रणादिके इ-प्रत्यये संज्ञाशब्दत्वेन स्त्रीत्वम् । यथा रामप्रबन्धेषु जटायुः । 'चेत्' इत्यनेन पताकावदनवश्यम्भावित्वमाह । क्वचिद्भावित्वात् स्वार्थनिरपेक्षत्वाच्च पताकातो भेद इति ।
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इसी लिए फिर [चाणक्य, सिद्धार्थक के इस कथनको अपने वाक्य के साथ जोड़कर और उसे राक्षसके पकड़ने में अपनी सफलताका निश्चयकारक मानकर अपने मनमें प्रसन्न होकर कहता है कि - ]
"चारणक्य - [ सहर्ष अपने मनमें कहता है] बड़ी प्रसन्नता की बात है कि राक्षस पकड़ में आ गया ।"
[यहाँ सिद्धार्थक द्वारा अन्य अर्थ में प्रयुक्त वाक्य रूप ] यह उत्तर [ चाणक्यके] संदेशको ग्रहण कर लेनेके सूचित करनेके प्रयोजन से [सिद्धार्थकने] प्रयुक्त किया था किन्तु [ वह ] चारणक्य को राक्षसके पकड़े जानेका निश्चय कराता है । इस लिए [ उसमें 'चिन्तितार्थ परप्राप्ति' यह पताकास्थानका] सामान्यलक्षरण [समन्वित हो जाता ] है ।
[पताकास्थानके पूर्वोक्त चारों लक्षणों में] प्रत्येक के साथ प्रयुक्त चकार नाटक के प्रति चारोंको प्रधानताको सूचित करनेकेलिए है ॥ ३१ ॥
अब प्रकरीका लक्षरण कहते हैं
[ सूत्र ३२] - यदि [ स्वार्थानपेक्ष रूपसे केवल ] अन्य [श्रर्थात् मुख्य नायक ] के प्रयोजन को सिद्ध करनेवाला चेतन [सहायक नाटक के अधिक भागमें व्यापक न होकर केवल ] किसी एक देश में होनेवाला ही हो तो उसे 'प्रकरी' कहा जाता है. ।
[कारिकामें श्राए हुए ] 'क्वचिद्भावी' [इसका अर्थ] कथाके एकदेशमें व्यापक [यह है ] । 'अन्यस्य' अर्थात् मुख्य नायकका प्रयोजन ही जिस [सहायकका] का प्रयोजन है वह ['अन्यप्रयोजनः' हुआ ] । वह चेतन सहकारी प्रकर्षेण अर्थात् स्वार्थको अपेक्षा न करता हुआ [निष्कामभावसे मुख्य नायकके कार्यको] करता है । इस लिए [अर्थात् प्रकर्षेण करोतीति प्रकरी इस व्युत्पत्ति के अनुसार ] 'प्रकरी' [ कहलाता ] है । प्र-उपसर्ग-पूर्वक कृ-धातुसे] श्रौणादिक इप्रत्यय करने पर संज्ञा शब्द होनेसे स्त्रीत्व [सूचक ङीप् प्रत्यय होकर प्रकरी पद बनता ] है । जैसे राम - [ चरितको लेकर लिखे गए ] प्रबन्धोंमें जटायु [स्वार्थानपेक्ष चेतन सहायक, वृत्तके केवल एकदेशमें स्थित होनेसे 'प्रकरी' कहा जाता है] । 'चेत' इस [पद] से पताकाके समान [ प्रकरीकी भी ] श्रवश्यम्भाविताका निषेध सूचित होता है । [श्रर्थात् नाटकमें पताका प्रौर १. अन्यस्य मुख्य नायकस्यैवं प्रयोजनं यस्य ।
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