Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का विषय बन सकता है जब कि या तो शत्रुपक्ष का कायरतापूर्ण पलायन भी साथ ही दिखाया जाए, या फिर यह दिखाया जाए कि शत्रुओं के रक्त की प्यासी तलवार ज्यों की त्यों खिची रह गयी और वह 'बेचारा' जनशून्य शत्रु-नगरी में हाथ मलता रह गया । किन्तु इस सबसे बढ़कर श्रादर्श स्थिति राम-रावण युद्ध प्रसंग की माननी चाहिए जिसमें राम ने रावण पर आक्रमण करके उसकी सेना एवं सहयोगी वीर सम्बन्धियों का मूलोच्छेदन करके लंका विजय के उपरान्त सीता का उद्धार किया ।
इन सब प्रकरणों में श्रंगी रस श्रृंगार अथवा वीर रस स्वीकार किये जाएंगे। यदि इनमें अन्य रसों की झलक मिलेगी भी तो वे अंगी के पोषक होने के कारण वंगरूप में स्वीकृत रहेंगे । किन्तु अंगी ( पोष्य) रहा के चमत्कार का मूल कारण ये अंग (पोषक) रस नहीं हैं, अपितु 'अद्भुत' का समावेश ही है—यह रामचन्द्र गुरा/चन्द्र का मूल अभिप्राय है, और शायद इसी प्रथवा इस प्रकार की धारणा से प्रेरित होकर धर्मदत्त नामक आचार्य ने निम्नलिखित कथन में प्रभुत रस की सर्वत्र ( सब सरस रचनाओं में ) स्वीकृति कर ली थी
रसे सारः चमत्कार: सर्वत्राऽप्यनुपते । तच्च मत्कारसारत्वे सर्वाप्यद्भुतो रसः ॥ "
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और इसी आधार पर ही नारायण नामक आचार्य ( श्राचार्य विश्वनाथ के पितामह) ने केवल प्रदभुत रस को ही एकमात्र रस घोषित किया था- तस्मात् प्रभुतमेवाह् कृती नारायणो रमम् । निस्सन्देह रस में चमत्कार ही सारभूत तत्व है। मकार को विश्वनाथ के शब्दों में विस्मय का अपर पर्याय भी कह सकते हैं, जिससे सहृदय के चित्त का विस्तार होता है। "चमत्कार: चित्तविस्ताररूपो विस्मयापरपर्याय: "
और इस चमत्कार अथवा विस्मय को खींचतान कर 'प्रभुत' का भी पर्याय मान लेने में कोई प्रापत्ति नहीं होनी चाहिए, और यही मद्भुत सभी रसों में एक अनिवार्य तत्त्व भी है, क्योंकि इसके बिना रस की सिद्धि ही सम्भव नहीं है । किन्तु यह सब स्वीकार करते हुए भी
(१) न तो रामचन्द्र गुणचन्द्र भाचार्यों के समान इस 'अद्भुत' को 'अद्भुत रस' इस नाम से प्रभिहित करना चाहिए, और
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(२) न श्राचार्य नारायण के समान इस प्रद्भुत को ही एकमात्र रस स्वीकार करना चाहिए | क्योंकि उक्त स्वीकृति में यह 'चमत्कार' प्रथवा 'अद्भुत' नामक तत्व रचना के मूल रस का केवल साधन मात्र होता है, साध्य नहीं होता, साध्य तो शृंगार आदि अन्य रस ही होते हैं । केवल इतना ही क्यों, यहां तक कि जिस रचना में प्रद्भुत रस साध्य रूप में रहेगा, वहां भी साधन रूप में ही इसकी स्थिति अनिवार्यतः रहेगी । निष्कर्षतः इस प्रसंग में 'भुत' शब्द काव्यचमत्कार का ही पर्याय है, अद्भुत रस का नहीं ।
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(६) शान्त रस का स्थायिभाव
रामचन्द्र गुणचन्द्र ने शान्त रस का स्थायिभाव निर्वेद न मानकर 'शम' माना है । इस सम्बन्ध में उनके निम्न कथन उल्लेखनीय हैं
१२.
साहित्यदर्पण ३३ इति ।
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