Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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इस प्रकार ग्रंथकार ने स्वतन्त्र ढंग से रसविवेचन का भी प्रयास किया है। इस प्रयास में सफलता की कसोटी एक मात्र यही है कि मागामी भाचार्यों ने उनके मत को कहीं मान्य नहीं माना, और विश्वनाथ मादि ने उनके मतों की सर्वदा अवहेलना ही की।
नाट्यदर्पणकार की एक बड़ी विशेषता यह दिखाई पड़ती है कि वे अपनी कारिका के गूढ़ स्थलों की व्याख्या स्वरचित वृत्ति में इतने विस्तार के साथ कर देते हैं कि वे गूढ़ स्थल स्पष्ट हो जाते हैं। कहीं कहीं तो अन्य भाचार्यों के कई श्लोकों में वरिणत लक्षणों को वे एक ही श्लोक में समाविष्ट कर लेते हैं । जहाँ भरत मुनि ने अठारहवें अध्याय के १०,११,१२वें श्लोकों में नाटक का लक्षण किया है वहाँ रामचन्द्र ने केवल एक श्लोक में नाटक की परिभाषा इस प्रकार की है
"उन रूपक भेदों में से धर्म, अर्थ मोर कामरूप त्रिविष फलों वाला, अंक, उपाय, दशा, संधि से युक्त, देवता मादि जिसमें सहायक हों, इस प्रकार का पूर्वकाल के प्रसिद्ध राजामों का चरित्रप्रदर्शित करने वाला अभिनेय काव्य नाटक कहलाता है:
ख्याताखराजचरितं धर्मकामासत्कनम्।
साङ्कोपायावशा-संधि-दिव्याङ्गता नाटकम् ॥ १।५।। रामचन्द्रगुणचन्द्र ने अभिनवगुप्त के नाटक शब्द की व्युत्पत्ति की मालोचना की है। अभिनवगुप्त ने 'पट् नृती' के स्थान पर 'णतनतो' पाठ मान कर नति अर्थात् नमनाक नद् धातु से नाटक की सिद्धि मानी है, जो उनके विचार से 'मिता ह्रस्वः ६४१६२ (पष्ठा०) सूत्र से णिच् परे रहते उपधा को ह्रस्व करने के विधान से 'नटक' शब्द 'घटक' के समान बनता है । किन्तु रामचन्द्र की यह अापत्ति उपयुक्त नहीं है, क्योंकि अभिनवगुप्त ने ननायक धातु से भी नाटक शब्द की सिद्धि की है। (विशेष विवेचन के लिए नाट्यदर्पण की प्रस्तुत हिन्दी व्याख्या पृ० २३ देखिए।) इस सम्बन्ध में विवेचन करते हुए प्राचार्य विश्वेश्वर ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अभिनवगुप्त ने केवल नमनार्थक धातु से ही नहीं, अपितु नर्तनार्थक पातु से भी नाटक शब्द की सिद्धि की है । अभिनवगुप्त लिखते है:
नाटकं नाम तच्चेष्टितं प्रतीभावदायकं भवति तथा हल्यानुप्रवेशरजनोल्लासनया हृदयं शरीरं च नर्तयति नाटकम् ।
नाटक और नाटकेतर काव्यांगों में अन्तर
नाटयदर्पणकार के पूर्व प्राचार्यों ने नाटक एवं नाटकेतर काव्य में उतनी स्पष्टता के साथ अन्तर नहीं दिखलाया है, जितनी स्पष्टता हमें रामचन्द्रगुणचन्द्र की रचना नाट्यदर्पण में मिलती है । प्राचार्य धनञ्जय ने नाटक और नाटकेतर रूपकों में अन्तर दिखाते हुए लिखा है
प्रकृतित्वावशान्येषां भूयो रसपरिप्रहात ।
सम्पूर्णलक्षणत्वाच्च पूर्व नाटकमुच्यते ॥ [नाटक अन्य प्रकार के रूपकों की प्रकृति है । प्रर्थात् प्रकरण मादि भेदों का लक्षण नाटक के प्राधार पर ही किया जाता है। नाटक में बहुत अधिक रस का परिग्रह होता है, और उसमें संपूर्ण लक्षण होते हैं।
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