Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् [ का० १६,१७, सू० १३,१४ अलङ्काराः श्लेषोपमादयः। कथा वृत्तम् । अङ्गान्युपक्षेपादीनि, अङ्गभूता रसाश्च, तैरगलन अत्रुटन रसो यत्र । त एव श्लेषोपमादयो विधेया ये रसनिष्पत्तिप्रयत्नेनैव निष्पद्यन्ते । वृत्तान्ते अङ्गानि उपक्षेपादीनि च तथा निबन्धनीयानि यथा रसमन्तरयन्ति । अङ्गभूता रसाश्च तथा नियोज्या यथा न नाङ्गिनं रसं तिरोदधत इति ॥१॥ अथ वृत्तबन्धशिक्षामाह[सूत्र १३]- उक्तत्वाद् वक्ष्यमाणत्वाद् भूयः कार्याद् यदुच्यते ।
तत् कर्णे श्रावयेद् येन न याति पुनरुक्तताम् ॥१६॥ उक्त पूर्व, वक्ष्यमाणं पुरः प्रकाश्यमानम् । प्रयोजनवशाद् भूयोऽपि यद् वृत्तमुच्यते तत् पुनरुक्तताभयात पात्रस्य कर्णे कविः श्रावयेत् । तथा च दृश्यते 'कर्णे एवमेव' ॥१६॥ [सूत्र १४]-गोपुच्छकेशकल्पानि नाट्यवस्तूनि कल्पयेत् ।
उदात्ता रञ्जका भावाः स्थापनीयाः पुरः पुरः॥१७॥ गोपुच्छम्य च केशा: केचित् स्तोकमात्रयायिनः, केचिन्मध्यावधयः, केचि. दन्तव्यापिनः । एवं प्रबन्धवस्तून्यपि । यथा रत्नावल्यां प्रमोदोत्सवो मुखसन्धावेव निष्ठितः । मुखोपक्षिप्तो बाभ्रव्यादिवृत्तान्तश्च निर्वहणारम्भे। रत्नावली प्राप्स्या
___ अलङ्कार श्लेष उपमादि है । कथा अर्थात् वृत्तान्त । अङ्गसे उपक्षेप आदि अङ्गों तथा अप्रधान रसोंका प्रहरण होता है। उनसे [अर्थात् श्लेषादि अलङ्कार, अवांतर कथा और उपक्षेपावि अङ्गों अथवा अप्रधान रसों] के द्वारा जिसमें [प्रधान] रसका विच्छेद न हो। उन्हीं श्लेष उपमाविका प्रयोग करना चाहिए जो रस-सिद्धिके लिए किए जानेवाले प्रयत्नसे ही सिद्ध हो सकते हों। और कथाभागमें उपक्षेप प्रादि अङ्गोंकी रचना इस प्रकारसे करनी चाहिए कि जिससे वे रसको तिरोभूत न कर सकें। तथा अङ्गभूत अप्रधान रसोंको इस ढंगसे रखना चाहिए कि वे प्रधान रसको तिरोभूत न कर सकें ॥१५॥
अब कथाभागको रचनाको शिक्षाको कहते हैं--
[सूत्र १३]-पहले कहे हुए या प्रागे कहे जानेवाले [कथाभाग] को यदि कार्यवश फिर दुबारा कहा जाय तो उसको [कवि 'कणे एवमेव' लिखकर] कानमें कहलावे जिससे वह पुनवक्त न हो।१६।
'उक्त' अर्थात् पहिले कहा हुआ और 'वक्ष्यमाण' अर्थात् मागे कहे जाने वाला जो अर्थ प्रयोजनवश दुबारा कहा जाता है उसको पुनरुक्तिसे बचानेकेलिए कवि पात्रके कानमें कहलावे । जैसा कि [नाटकोंमें] 'कर्णे एवमेव' [लिखा] देखा जाता हैं ॥१६॥
[सूत्र १४]-नाटकको 'नुओंको रचना गोपुच्छके केशोंके समान करे। और जो उदात्त तथा मनोरञ्जक भाव हों उनको आगे-आगे [मुख्यरूपसे प्रस्तुत करे ।१७।
गोपुच्छके बालोंमें कुछ थोड़ी दूर तक हो जाते हैं। कुछ बीच तक पहुंचते हैं। और कुछ अन्त तक फैले रहते हैं। इस प्रकार नाटककी वस्तुएँ भी रखनी चाहिए। जैसे रत्नावली [नाटिका में प्रमदोत्सव मुखसन्धिमें ही समाप्त हो गया है। मुखसन्धिमें सूचित
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